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Showing posts from October, 2024

दीवाली

असुरों से ये त्रस्त जगत की  करुण व्यथा दीवाली है । अंधेरों से संघर्षों की  एक अद्भुत प्रथा दीवाली है । चहुं ओर निराशा के घेरे थे वहां रक्त पिपासु के डेरे थे बुझे पड़े सब हवन कुंड  तब फैल गए  दुष्टों के झुंड जब लांघ गई पीड़ा सीमाएं तब आमजनों का वानर सेना  बनने की कथा दीवाली है । नेत्रों में अश्रु के थे झरने  फिर भी सबकी पीड़ा हरने जंगल बीहड़ दुनियां नापी आदर्शों से नहीं डिगे कदापि सिया राम के उस बिछोह की उस नैतिकता के मूल्यों की  एक प्रेम कथा दीवाली है । अंधेरों से संघर्षों की  एक अद्भुत प्रथा दीवाली है ।

बटेंगे तो कटेंगें

सभी सनातनी बस यही बात रटेगें जातियों में बंटेंगे तो फिर हम कटेंगें  जातियों में छंटेगें तो आपस में बंटेंगे  आपस में बंटेंगे तो गिनती में घटेंगे  अब तो संभल जाओ मेरे सनातनियों गिनती में घटेंगे तो फिर सारे कटेंगें  बंटेंगे तो कटेंगे - बंटेंगे तो कटेंगे । हमला हो रहा रोज़ तुम पर चहुं ओर हिंदुओं के भेष में है कितने हरामखोर कब तक सहोगे क्यों नही मचाते शोर आंख में अंगार भर पोंछ आंसुओं की कोर अब नहीं लुटेंगें अब नहीं पिटेंगे धर्म बचाने हम मिलकर डटेंगें कटेंगें तो बटेंगे कटेंगें तो बटेंगे  ताकत में हम ही सबसे बड़े थे राजा राजवाड़े सभी आपस में लड़े थे तुमसे हूँ बलशाली इसी बात पर अड़े थे मौके की तलाश में सारे दुश्मन खड़े थे चाहे हो मराठा तुम चाहे राजपूत हो सारे के सारे तो माँ भारती के सूत हो चहुं ओर देखो ये शिकारी बड़े आए हैं तुमको फंसाने कैसे जाल बिछाएं है   पहले जैसी भूल अब फिर नहीं करेंगे  अब नहीं लुटेंगें अब नहीं पिटेंगे बटेंगे तो कटेंगें बटेंगे तो कटेंगें  बहुत हो चुका है अब हम नहीं बंटेंगे  अब नहीं बटेंगे अब नहीं बटेंगे  अब नहीं बटेंगे अब नहीं कटेंगें जातियों में बंटेंगे तो फिर सारे कटेंगें

नशा खुरानी

कोई  फर्क नहीं  तुम मेष  मकर या मीन हो कभी मीठा कभी कसेला कभी नमकीन हो जहां भी जाओगी कयामत ढहाओगी  अमरीका जापान या फिर चीन हो  नशा खुरानी तो पेशा है तुम्हारा  तुम दिल लूट ने की शौकीन हो हाए कहीं पुलिस का छापा न पड़ जाए  तुम तो चलती फिरती कोकीन हो तुम हँसती हो तो केल्शियम जैसी हो और मुस्कुराती हो तो प्रोटीन हो

ये किताबें मेरे काम की नहीं

ये किताबें मेरे काम की नहीं-- कितनी किताबें पढ़ ली  मैंने तुम्हारी नायाब उसमें आकाश छूने की तरकीबें थी हिमालय की गहराइयों का ज़िक्र भी था सोना चांदी  फूल तितलियां  5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था सेंसेक्स की उछाल सौंदर्य चित्रण प्रेम प्रसंग सब थे उसमें कागज़ की क्वालिटी शानदार है कवर पेज भी आकर्षक है बहुत अच्छा लिखते हो तुम  एक बात कहूँ  बुरा नहीं मानना ये सब भरे पेट वालों के काम की है क्षमा करना  इन्हें लौटाना चाहता हूं ये किताबें मेरे काम की नहीं कोई ऐसी किताब भी  लिखी हो तो देना  जिसमें मेरे बच्चों की  भूख मिटाने की  स्कूल की फीस भरने की  बिटिया के ब्याह का  कर्ज लौटाने की टूटी दीवार पर प्लास्टर करवाने की तरकीब लिखी हो  फिर चाहे उसमें  मीटर अलंकार काफिया यति गति व्याकरण  न हो तो भी मेरे लिए अनमोल होगी ।  तुम्हारी उठ बैठ तो  नामचीन कवियों -शायरों से है पूछो न उन्होंने लिखी हो कोई ऐसी किताब  तो मुहैया करवाना ना ।

चलो लोकतंत्र बचाएं

नायाब -- झोले भर पत्थर कनस्तर भर पेट्रोल बोतल में केरोसिन नफरत की चासनी में लिपटे कुछ आज़ादी के नारे किसी धर्म विशेष को खास विशेषण से लिखी नारों की तख्तियां कुछ किराए के शांति दूत कुछ बरगलाए मासूम बच्चे कुछ बहके नौजवान साथ ही दूसरों की धुन पर बजाने को डफली कुछ ज़हर बुझी कलम लाल स्याही वाले कलमकार  यह सब समान तैयार है । अब देर किस बात की चलो लोकतंत्र को बचाने निकले । मनोज  " नायाब "

तुम्हे क्या पता

पीकर सच बोलना यही तो हमारा काम है तुम्हे क्या पता सदियों  से चल रहा सिलसिला ये आम है तुम्हे क्या पता बिन पिये ही नफरत करने वालों  ये शराब किस शह का नाम है तुम्हे क्या पता कंक्रीट के शहर में रहने वालों गांवों में कितनी हसीन शाम है तुम्हे क्या पता जो नहीं मिला पता तो फाड़ दिया खत ए डाकिए इसमें किसी का पैगाम है तुम्हे क्या पता बंदगी तुम्हें जिसकी भी करनी है करो मगर इस मुल्क के आका बस राम है तुम्हे क्या पता संभालना तुम्ही से खरीद लेंगें तुमको  इनकी जेबों में होते बड़े दाम है तुम्हे क्या पता 

(लेख ) क्या है खुशी

क्या है ये ख़ुशी और ग़म-: ख़ुशी हो या ग़म भले ही भीतरी एहसास हो पर दोनों 5 इन्द्रियों से प्रभावित होती है और ये इन्द्रियां बाहरी वस्तुओं से , अतः इनका प्रभाव भी अलग अलग मात्रा में पड़ना लाजिमी है । हालांकि ख़ुशी और गम का को नापने का कोई पैमाना तो नहीं है पर इन सबके बावजूद उनके कद काठी और स्तर को नापा जाता रहा है अप्राप्य और अनुपलब्ध पैमानों से मसलन आपका बच्चा अपनी कक्षा में उत्तीर्ण होता है तो आपको ख़ुशी होती है और वही प्रथम श्रेणी के अंकों से उत्तीर्ण हो तो ख़ुशी और बढ़ जाती है और इससे भी आगे बढे और पुरे विद्यालय में सर्वश्रेष्ठ आये तो आपकी ख़ुशी का पैमाना किस स्तर तक होगा इसका अन्दाज़ा आप सहज ही लगा सकते है वहीँ एक ख़ुशी ऐसी भी हो सकती है न तो बाहरी दृश्यों से मिलती है न ही किन्हीं इन्द्रियों से प्राप्त होती है ये ख़ुशी या ग़म आपको एहसास या कल्पना के सागर में प्रवेश करने से भी मिलती है ये भीतरी चीज़ों से मिलती है मगर ये वास्तविक कम और काल्पनिक ज्यादा होती है मगर जो भी हो ख़ुशी का एहसास तो कराती ही है । इसलिए ये मेरी निजी राय है की हर गम और ख़ुशी की एहसास का अपना एक स्तर होता है ये जब ये स्तर बढ़ता है

मां क्यों चली गई

मैंने ढूंढ लिया आकाश गया मैं तारों के भी पास मैंने कितना किया तलाश कुछ दिन रुक जाती तूं काश मां क्यों चली गई  बता क्यों चली गई । मुझे तुम सीखा गई तपना तभी तो सच हो गया सपना बड़ा सा घर हो गया अपना तेरी पूरी हो गई है आस पर तु क्यों चली गई मां क्यों चली गई  बता क्यों ..... चिंता इतनी सताती है  रात भर नींद न आती है अपनी गोदी में रखकर सर सुला दो थपकी दे दे कर काश तू होती मेरे पास मां क्यों चली गई  बता क्यों चली गई

दरवाजे कौन खोल देता है

वफादारी के कुएं में आखिर ये गद्दारी का ज़हर कौन घोल देता है । हमने तो अपनी जुबा काट ली थी  फिर ये सारे राज़ कौन बोल देता है । बाहर दुश्मन का लश्कर हो तो भीतर से ये किले के दरवाजे कौन खोल देता है । अब कहाँ पैदा होते वो तेग बहादुर जो वतन के लिए गर्दन तक तोल देता है ।

ठोकेंगे

हमारा वतन जो जलाओगे  उन्माद जो तुम फैलाओगे  पहले प्यार से रोकेंगे  फिर भी न माने तो अब ठोकेंगे हम ठोकेंगे । इंसानियत का कत्ल कर डाला था कश्मीरी पंडित को घर से निकाला था हाथ जोड़ कर करी थी फरियाद नहीं आई भाई चारे की याद अब आंख उठाकर जो देखोगे तो हम ठोकेंगे... हिंदुत्व को देकर गाली तुम बजाओगे डफली ताली तुम कमज़ोरी नहीं है हमारी शराफत जो श्वान हम पर भोंकेंगे तो उनको भी हम ठोकेंगे । हम ठोकेंगे हासिल हुए तख्त क्या एक रात में नहीं मिलते हैं ताज खैरात में बरसों जले है गुलामी की धूप में  भीगे है ज़ुल्मों की बरसात में  इज़्ज़त है ये वतन का ताज जो इनको तुम यूँ उछालोगे हम ठोकेंगे हम ठोकेंगे । पुलवामा हुआ और हुआ सोपियां नहीं उछाली तुम्हारी कभी टोपियां पहले अपना समझ के तुमको रोकेंगे फिर भी न समझे तो तुमको हम ठोकेंगे । हम ठोकेंगे । राम जो भारत के कण कण में बसा वो हाज़िर भी है नाज़ीर भी कितने बाबर सिकंदर आए सब के सब ही मुंह की खाए सब उठ गए हमको उठाने वाले तुम क्या बूत उठाओगे । हम ठोकेंगे । हम ठोकेंगे ।

एक रोज़ आफताब

एक रोज आफताब देखने आया था मेरा घर की कैसे उजला रहता है अंधेरों में ये दर अंधेरे हमेशा ही मुझसे हार जाते है  शायद ये मेरी माँ की दुआओं का था असर पतंग बनना चाहता हूं पहले की तरह आकाश छूना चाहता हूं पहले की तरह उड़ान भरना चाहता हूं पहले की तरह फिर से लगा दो मुझे बचपन के मेरे पर पीहर में किया करती थी मैं नखरे तब हज़ार सर पे उठा लेती थी जब आ जाता बुखार बाबुल का अंगना तुझको फिर से याद आ गया  इसीलिए भीगी है पलक, है आंख तेरी तर एक रोज आफताब देखने आया था मेरा घर की कैसे उजला रहता है अंधेरों में ये दर अंधेरे हमेशा ही मुझसे हार जाते है  शायद ये मेरी माँ की दुआओं का था असर पतंग बनना चाहता हूं पहले की तरह आकाश छूना चाहता हूं पहले की तरह उड़ान भरना चाहता हूं पहले की तरह फिर से लगा दो मुझे बचपन के मेरे पर पीहर में किया करती थी मैं नखरे तब हज़ार सर पे उठा लेती थी जब आ जाता बुखार बाबुल का अंगना तुझको फिर से याद आ गया  इसीलिए भीगी है पलक, है आंख तेरी तर

रावण

कितने अजीब है हम  कितने किंककर्तव्य विमूढ़ है  कितने डरपोक है हम जब रावण जीवित होते हैं  तब लड़ने को  नहीं निकलते घरों से  उस काल में भी  इस काल में भी  शांति के लिए करते रहे  हवन प्रार्थनाएं आरतियां स्तुतियाँ मंत्रोच्चार मगर हौसलों के शस्त्र नहीं  उठाए जाते तुमसे बस आकाश की ओर  ताकते रहते हैं करते रहते हैं त्राहिमाम त्राहिमाम प्रतीक्षारत रहते हैं  कोई राम आएगा और  रावणों का विनाश करेगा  रावण के समाप्त हो जाने के बाद  अब क्या जलाते हो  उसको तुम प्रति वर्ष ये नाटक क्यों  तुम्हारे सामने कितने रावण है आज भी तो लाखों सीताऐं शिकार हो रही है  नए युग के रावणों की टुकड़े हो कर भरी जा रही  सूटकेसों में उनसे लड़ते क्यों नहीं  क्यों नहीं जलाते फिर सदियों बाद इनके  पुतले फूंकते फिरोगे आज क्यों नहीं निकलते  घरों से तुम्हें कोई अधिकार नहीं  रावण जलाने का । मनोज नायाब ✍️

गरीब कवि

किसी गरीब कवि के मुख से  गरीबी पर नहीं सुनता कविता कोई  गरीबी पर कविता सुनने के लिए  बुलाया जाता है  किसी अमीर कवि को जो हवाई जहाज से उतरता हो उसकी अगवानी लाव लश्कर से हो पांच सितारा होटल से निकलकर  सीधे मंच पर आए और फिर सुनाए गरीबी पर कविता । फिर 2000 की टिकट खरीदकर  आए लोग बजाते हैं तालियां  बाहर निकलकर गाड़ियों के  काले शीशे चढ़ाकर  फुर्ररर से निकल जाते हैं  कहीं सिग्नल पर कोई  गरीब तंग न करें । मनोज नायाब ,✍️

बर्तनों पर नाम

इसीलिए शायद पूवजों द्वारा  बर्तन पर नाम खुदवाया जाता था । क्योंकि बर्तनों में मिठाई नहीं  अपनापन भर कर बंटवाया जाता था । तब कटोरियों में  होली पर दही बड़े  दीवाली पर मीठे शक्करपारे बेटे के ससुराल से आई हुई तीज की मिठाइयां  उघापन का प्रसाद सर्दियों में दाल के बड़े  बेटे के पास होने पर रसगुल्ले मल मास में गुड़ के गुलगुले  कुलदेवी का प्रसाद नई बहू के हाथों बनी पहली पहली रसोई , और तो और मुंडन या श्राद्ध में बची हुई जलेबी को भी बांटकर खाया जाता था । इसीलिए पूवजों द्वारा  बर्तनों पर हमेशा नाम खुदवाया जाता था । अब तो रिश्ते भी  डिस्पोजल जैसे हो चले हैं  बस काम में लो और फैंक दो । "जो इस्तेमाल करेंगें और फिर  डस्टबिन में डाल आएंगें । डिस्पोजल वाले लोग अब कहाँ  बर्तनों पर नाम खुदवाएंगें "। अक्सर घरों में गलती से रह गया पड़ोसी का नाम खुदा चम्मच मिल जाता था । इसीलिए भी  पूवजों द्वारा  बर्तनों  पर  नाम हमेशा  खुदवाया  जाता था । क्या परंपरा थी बर्तनों को भी  कभी खाली नहीं लौटाया जाता था । इसीलिए पूवजों द्वारा हमेशा  बर्तनों पर नाम खुदवाया  जाता था । मनोज नायाब ✍️

अंतिम सत्य

अंतिम सत्य- अभी बहुत समय  पड़ा है  यही  वहम सबसे  बड़ा है  और करूंगा अभी  संचय इसी बात पर क्यों अड़ा है तुमको  दिखता  नहीं भले ये काल मुंह बाए  खड़ा है  एक पल में बिखर जाएगा ये जीवन मिट्टी का घड़ा है मनोज नायाब ✍️