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Showing posts from March, 2017

कुछ बेकार शब्द

आओ किताबों से कुछ बेकार के शब्द हटाएं जिन्होंने यूँ ही घेर रखी है कागज़ की क़ीमती जगह जो अब किस्से कहानियों में रह गए हैं जो इस्तेमाल में न आने की वजह से उखड से गए हैं पन्नों से कागज़ की पकड़ उन पर ढीली होने लगी है मानो कोई मृत शरीर रसायन का लेप लगाए रखा गया है ताबूत में चलो अब इन फ़िज़ूल के शब्दों की अंत्येष्टि कर दें । भैतिक मन के भौतिक वन से कुछ स्वार्थ की धुप से सूखी आडंबर की लकड़ियाँ चुने और उन मृत शब्दों को चिता पर लिटा दें और क्रूरता की अग्नि की लपटों के हवाले कर दें । देखो अब किताबों से कितनी जगह खाली हो गई है अब हम प्रेम की जगह नफरत सेवा की जगह तिरस्कार त्याग की जगह अहंकार सदाचार की जगह दुराचार दान की जगह व्यापार संस्कार की जगह विकार दया की जगह क्रूरता को बिठा दे जो पिछले पन्नों पर अब तक व्याकुल थे छिप कर बैठे थे उन्हें पहले पन्ने पर ले आते हैं उन्हीं को रोज़ पढ़ा करेंगे उन्ही से अब समाज की तस्वीर मढ़ा करेंगे । "मनोज नायाब"

कत्लखाना #katlakhana#

बिना लाइसेंस के रोज़ क़त्ल करती है तेरी आँखों से बड़ा कत्लखाना नहीं  । कोई कैसे होश संभाले तुम ही कहो इन होठों से बड़ा कोई मयखाना नहीं  । अभी कई जिगर बाकी है क़त्ल होने को कुछ देर ठहर जाओ अभी जाना नहीं । डाल दो हथकड़ियां दिल-ए-नादां को तेरी ज़ुल्फ़ों सा हसीन कैदखाना नहीं । दर्द तुमसे राहतें भी तुम्ही से है "नायाब" तेरी मुस्कराहट सा कोई दवाखाना नहीं ।  "मनोज नायाब "