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Showing posts from January, 2016

शब्दों का चुग्गा

शब्दों को आटे की गोलियां न बनाएं, जिनको कवितामई जाल में चस्पा कर मानों श्रोताओं की मछलियाँ फांसनी हो, शब्द को हम चुग्गा बनाएं और फैला दें  साहित्य के धरातल पर कई पक्षी भूखे होंगें शायद तेरे आखर के दानें उनकी क्षुधा को शांत कर दें, शब्द को तुम तारे भी न बनाओ जो दूर से बस टिमटिमाते रहे और कोई छु कर महसूस भी न कर पाएं न ही अपनी रौशनी दे पाएं भटके हुए मुसाफिरों को शब्द को गुलाब सा उपवन बनाएं जिन्हें कोई समर्पण भाव से छुए तो कोमलता का एहसास कराएं और छुए कोई अहंकार से तो गहरे तक चुभ जाएं जिन्हें देखें कोई तो आँखों को ठंडक सी दे जाएं और नथुनों से खुशबु बनकर दिल में उतर जाएं । " मनोज नायाब "

जीवन का सार

इक्की दुक्की मुस्कान, पर आंसू हज़ार हज़ार है । जिंदगी सूत भर सलामत,  बाकी तार तार है । अंजलि भर सुमन है , और झोली भर खार है । हज़ार मुट्ठी नफरत है, तो एक चुटकी प्यार है । हंसना बूंद भर है, मगर रोना ज़ार ज़ार है । जीत क्षण भर की है, सदियों तक हार ही हार है । पाना तो कभी कभी है, पर खोना बार बार है । खुशियाँ बहुत कम है, पर ग़म यारों बेशुमार है । सफ़र बड़ा लंबा है, जाना उस पार से उस पर है । सब मिलकर काटो ये सफ़र, यही जीवन का सार है । "मनोज नायाब"

दीपक

दुनियां कह रही है दीपक जल रहा है, असल में तो बाती और तेल जल रहा है, इन्हीं के कारण वो अँधेरा हाथ मल रहा है फिर भी दुनियां कह रही है दीपक जल रहा है । तेल और बाती के बलिदान से निकलती है एक लौ वह अकेली लौ निपटती है अँधेरे क्यों न हो सौ इन्हीं के बलिदान से उजाला पल रहा है फिर भी दुनियां कह रही है दीपक जल रहा है । अनाम उत्सर्ग हो गई वो बाती, लौट कर फिर कभी नहीं आएगी, अब तो नई बाती नए तेल में नहाएगी, और अँधेरे को एक दिन जड़ से मिटाएगी । इन्हीं के बलिदान से उजाला पल रहा है फिर भी दुनियां कह रही है दीपक जल रहा है । "मनोज नायाब"

आखिर क्यों

धरा को रक्त रंजित करके क्यों इसे दागदार कर देना चाहते हो आखिर ऐसा क्यों करते हो । धरा की हरियाली को नोच नोच कर क्यूँ इसे नग्न कर देना चाहते हो आखिर ऐसा क्यूँ करते हो । धरा कीप्रज्ज्वलित मानव शिखाओंकोबुझाकर क्यों इस धरा पर अंधेर करना चाहते हो आखिर ऐसा क्यूं करते हो । धरा पर बुरादा बारूद का बिछाकर क्यूँ इसे राख करना चाहते हो आखिर ऐसा क्यों करते हो । धरा की हवाओं में घोलकर ज़हर क्यों इस जन्नत को जहन्नुम करना चाहते हो आखिर ऐसा क्यूँ करते हो । शायद धरा का दिल अंदर ही अंदर रो रहा है की मानव धीरे धीरे अपना अस्तित्व खो रहा है "मनोज नायाब"

नायाब की मधुशाला madhushala

प्रेम रस की नहीं ये कविता बस खोल रहा ज्ञान का ताला तुझे लक्ष्य से भटका देगा न थाम ज़हर का ये प्याला क्या करने आया जग में भूल न जाने मेरे भाई पथ भ्रष्ट कर डालेगी ऐसी कुटिल है मधुशाला      -----****----- जिसने तुमको जन्म दिया  जिसने तुमको है पाला कितनी पीड़ा उसको होगी देख तेरे हाथों में प्याला मद में डूबा जीवन तेरा दूर करेगा अपनों से धिक्कार है तेरी ये हाला धिक्कार है ये मधुशाला      -----***----- नेता हो गए है मतवाले  पीकर सत्ता का प्याला शाम सवेरे ये बहुतेरे चाहे बस दौलत की हाला संसद का कोलाहल सुनकर ऐसा लगता है मानों लोकतंत्र का मंदिर है या  नुक्कड़ की कोई मधुशाला       -----***----- खाली है साकी के घट तुझको क्या देंगे हाला खुद साकी खाली बैठे हैं लौट दो इनको प्याला महंगाई ने ग़ज़ब है ढाया सन्नाटा है बाज़ारों में कहने को जेबें खाली है पर भीड़ लगी है मधुशाला      -----***----- तेरी आँखों से टपकती बूंद बूंद कर ये हाला आँखों की सुराही को छलकादो भर दो मय से दिल का प्याला मेरे दिल की बंजर भूमि को अंकुरित तुम ही कर दो