सफ़हे खोलती
सफ़हे खोलती पढ़ती सिसकती और रात भर जाग कर थक हार कर सो जाती । मेरी ज़िंदगी की दराज़ तुम्हारे खतों के बगैर मानो बेवा सी हो जाती । तुम नहीं भी हो तो भी तुम्हारे भेजे खत मंगलसूत्र के जैसे थे मानो किसी सिपाही की जंग से कोई खबर नहीं आयी हो फिर रोज़ाना उस मंगलसूत्र को चूमकर उसके आमद का इंतज़ार करती । तेरी याद जैसे खतों की बंजर ज़मी पर हर्फ़ों के बीज बो जाती । सफ़हे खोलती पढ़ती सिसकती रात रात भर जाग कर थक हार कर सो जाती ।