नायाब की मधुशाला madhushala
प्रेम रस की नहीं ये कविता
बस खोल रहा ज्ञान का ताला
तुझे लक्ष्य से भटका देगा
न थाम ज़हर का ये प्याला
क्या करने आया जग में
भूल न जाने मेरे भाई
पथ भ्रष्ट कर डालेगी
ऐसी कुटिल है मधुशाला
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जिसने तुमको जन्म दिया
जिसने तुमको है पाला
कितनी पीड़ा उसको होगी
देख तेरे हाथों में प्याला
मद में डूबा जीवन तेरा
दूर करेगा अपनों से
धिक्कार है तेरी ये हाला
धिक्कार है ये मधुशाला
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नेता हो गए है मतवाले
पीकर सत्ता का प्याला
शाम सवेरे ये बहुतेरे
चाहे बस दौलत की हाला
संसद का कोलाहल सुनकर
ऐसा लगता है मानों
लोकतंत्र का मंदिर है या
नुक्कड़ की कोई मधुशाला
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खाली है साकी के घट
तुझको क्या देंगे हाला
खुद साकी खाली बैठे हैं
लौट दो इनको प्याला
महंगाई ने ग़ज़ब है ढाया
सन्नाटा है बाज़ारों में
कहने को जेबें खाली है
पर भीड़ लगी है मधुशाला
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तेरी आँखों से टपकती
बूंद बूंद कर ये हाला
आँखों की सुराही को छलकादो
भर दो मय से दिल का प्याला
मेरे दिल की बंजर भूमि को
अंकुरित तुम ही कर दो
ज़ुल्फ़ें है तेरी बादल सी
तू चलती फिरती मधुशाला
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तेरी कातिल नज़रों से
मैँ बन बैठा हूँ मतवाला
रास नहीं आती ये मदिरा
चाहूँ होठों का प्याला
नहीं चाहिए साकी मुझको
तूं जो मिल जाए हमको
हो तेरे यौवन की चर्चा
तो पानी भरती मधुशाला
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हिंदुस्तान के मतवाले
पी गए ज़हर का हर प्याला
उन्हें चाहिए थी हर हाल मैं
आज़ादी की बस हाला
युवाओं की टोली थी
हर सीने में गोली थी
इंकलाब की बोली थी
खेली लहू से होली थी
अपनी मौत की चाबी से
खोला आज़ादी का ताला
रक्त रंजीत हो गई थी धरती
ज्यों कोई हो लहुशाला ।
"मनोज नायाब" द्वारा हरिवंश राय को एक श्रधांजलि स्वरुप
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