शब्दों का चुग्गा
शब्दों को आटे की गोलियां न बनाएं,
जिनको कवितामई जाल में चस्पा कर
मानों श्रोताओं की मछलियाँ फांसनी हो,
शब्द को हम चुग्गा बनाएं
और फैला दें
साहित्य के धरातल पर
कई पक्षी भूखे होंगें
शायद तेरे आखर के दानें
उनकी क्षुधा को शांत कर दें,
शब्द को तुम तारे भी न बनाओ
जो दूर से बस टिमटिमाते रहे
और कोई छु कर
महसूस भी न कर पाएं
न ही अपनी रौशनी दे पाएं
भटके हुए मुसाफिरों को
शब्द को गुलाब सा उपवन बनाएं
जिन्हें कोई समर्पण भाव से छुए
तो कोमलता का एहसास कराएं
और छुए कोई अहंकार से
तो गहरे तक चुभ जाएं
जिन्हें देखें कोई तो आँखों को
ठंडक सी दे जाएं
और नथुनों से खुशबु बनकर
दिल में उतर जाएं ।
" मनोज नायाब "
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