ग़ज़ल


आंखों में तूफा और ख्वाब है सफीने में
फासला कम क्यों है इतना मरने और जीने में

कातिल को रिहाई तो रिंदों को सज़ा क्यों
रखना था फर्क तो लहू और शराब पीने में

खत लहू से बहुत लिखे थे हमने भी तो मगर
दिल की जगह पत्थर रखा था उसके सीने में

उसके हिस्से में दौलत मेरे हिस्से में ग़ुरबत क्यों 
जाने क्या फर्क था उसके और मेरे पसीने में 

मैं आसमानों की बुलंदी को छू न सका 
क्योंकि दरारें ही दरारें थी मेरे घर के ज़ीने में 


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