सांसो का सिलेंडर
ज़िंदगी के तवे पर है
गुज़र बसर की रोटी,
मगर अचानक
सांसों का सिलेंडर
जवाब दे गया,
अब क्या करें
कहाँ जाएं
कितनी थालियां
घर के आंगन में
लगी हुई है,
सब इंतज़ार में
बैठे हैं रोटी के,
कुछ तो आभास
दिया करो
सांसों के सिलेंडर
के खत्म होने का,
सच ये भी है कि
मेरे कोटे की सांस बाकी थी
मगर किसकी बेपरवाही ने
असमय बुझा दिए
ज़िंदगी का चूल्हे
और हम बस समाचार
बनकर रह गए
अब जो मेरी उम्मीद
पर थाली लिए बैठे थे
उनका क्या होगा ।
मनोज नायाब--
कितने ही परिवारों के मुखिया या कमाने वाले चले गये... वो कोरोना से नहीं मरे बल्कि बेपरवाही नामक रोग से मरे. दर्पण सरीखी रचना.
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