पीछे हटता दुश्मन

अच्छा लगता है जब दुश्मन सेना 
अपने बंकर खुद ही तोड़ रही है ।

सुन दहाड़ हिंदुस्तानी शेरों की
गीदड़ सी फौजें सरहद छोड़ रही है ।

बर्फ ढकी चोटियां लगती है जैसे
धरती मां उजला आँचल ओढ़ रही है ।

कौन लाएगा दुश्मन का शीश पहले
भारत के शेरों में बस यही होड़ रही है ।

आज जलेंगे सरहद पर घी के दीपक
ये देख के आंधी भी रास्ता मोड़ रही है ।

उधर बिछा दी अपनी लाश को धरती पर
बाट जोहती मां उंगली पे दिन जोड़ रही है ।

फौज से जब बाबूजी आएंगे छुट्टी पर
नई स्वेटर को बिटिया पैसा जोड़ रही है ।

मनोज "नायाब"
9859913535
कवि-लेखक
 

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