कभी भी कहीं भी

ये कौन है जो अल सुब्ह
बालों में उंगलियां फिरा कर
जगा जाता है 

ये सन्नाटे इतने चीख क्यो रहे हैं
ये कौन है जो अपनी खामोश तबस्सुम से
इन चीखों को भी बेदम कर देता है ।

सांझ के सूरज ने भी 
नहीं मला अपने चेहरे पर
आज सुर्ख रंग
कहीं उसने तुम्हारी सादगी तो
नहीं देखली ।

कल आया था
बे-लिबास होकर चांद
मगर इससे ज्यादा तो 
तुम्हारी पर्दादारी 
हुश्न नुमाया होती है ।

भर कर गुलिस्तां की 
तमाम बु-ए-गुल 
कल गुलाब भी आया था 
मगर तुम्हारे बदन की खुशबू
उससे ज्यादा नशीली थी ।

कई नीले समंदर निगल गई ये
अब जाना की तुम्हारी
आंखों में डूबकर कोई
बाहर क्यों नहीं आता ।

तुम्हारे पानी टपकते
गीले गेसुओं से महंगा
इस दुनियां में क्या होगा ।

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