अब किताबें उठाते वक्त सर टकराते नहीं है
अब कहीं भी ऐसे मंज़र नज़र आते नहीं है ।

पहले सरीखा इश्क अब इस दौर में कहां है
चोट खाकर भी लोग अब मुस्कुराते नही है ।

जो सिल जाया करते थे शर्मोहया से कभी
इज़हार-ए-इश्क में अब होठ थरथराते नहीं है ।

उम्र भर सहेज कर रखे जाते थे इश्क के निशान
मगर अब कहीं खतों में गुलाब रखे जाते नहीं है ।

बड़ी ईमानदारी थी इश्क के कारोबार में भी नायाब
वादों का हिसाब रखने को कोई बही खाते नहीं है ।

मनोज "नायाब"



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