ग़ज़ल

निकाल दूं कुछ देर नश्तर कलेजे से
ताकि थोड़ा जिगर को भी आराम दें ।

खोली जो जुल्फे तो कितने  बे-रोज़गार हुए
कोई ज़रा इन बादलों को भी काम दें ।

हमने ये सोचकर उठा दिया पर्दा चेहरे से
सोचा इन भंवरों को भी कोई इनाम दें ।

तुम्हारी आमद का हवाला दे कब तक रोकूँ
नायाब कोई तो उनको मेरी मौत का पैगाम दें ।

जब भी जिक्र हो तो अदब से सर झुका ले दुनियां
चलो आओ इश्क को ऐसा अंजाम दें ।
"मनोज नायाब"

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