तब जाकर रोटी बनती है
कितना कुछ डाला जाता है
तब जाकर रोटी बनती है ।
भजन सुनाते लोरी गाते
बचपन की बातें बतलाते
माँ छलनी से आटा छनती है
तब जाकर रोटी बनती है ।
संस्कारों का पल्लू ओढ़कर
जीवन भर का नेह निचोड़कर
ममता के जल से आटा सनती है
तब जाकर रोटी बनती है ।
हर पल तकती तेरी थाली
एक पल भी वो रहे न खाली
तेरे चेहरे की हँसी को देखकर
माँ हर पल हर सांस मचलती है
तब जाकर रोटी बनती है ।
तूने बस देखे है उजाले
सोफे पर बैठे रहने वाले
जाकर देख कभी चौके मैं
धुंए से आँखें जलती है
तब जाकर रोटी बनती है ।
जीवन भर जोड़ी पाई पाई
बिना खिलाए कभी न खाई
जाकर देख कभी हथेली
गरम तवे से जब जलती है
तब जाकर रोटी बनती है ।
बीवी को जुकाम भी हो जाता है
तो होटल से खाना मंगवाया जाता है
दर्द से कराहती हुई कांपती हुई माँ
बलगम वाली खांसी खांसती हुई माँ
दीवार को एक हाथ से थामती हुई माँ
चाहे बुखार में कितनी ही तपती है
तब भी घर में ही रोटी बनती है ।
कितना कुछ डाला जाता है
तब जाकर रोटी बनती है ।
" मनोज नायाब"
बीवी को जुकाम भी हो जाता है
तो होटल से खाना मंगवाया जाता है
दर्द से कराहती हुई कांपती हुई माँ
बलगम वाली खांसी खांसती हुई माँ
दीवार को एक हाथ से थामती हुई माँ
चाहे बुखार में कितनी ही तपती है
तब भी घर में ही रोटी बनती है ।
कितना कुछ डाला जाता है
तब जाकर रोटी बनती है ।
" मनोज नायाब"
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