दिन भर दीवारों ने Din bhar diwaron ne...
ग़ज़ल
दिन भर दीवारों ने इसलिए कान्धे पे धुप ढोई
नायाब उसकी छाँव में बैठा था मुसाफिर कोई ।।
नायाब उसकी छाँव में बैठा था मुसाफिर कोई ।।
एक ज़माना था की यारों के मेले से लगते थे
अब फाकाकशी है तो पहचानता नहीं कोई ।।
अब फाकाकशी है तो पहचानता नहीं कोई ।।
अब्बू आयेंगे तो कुछ खाने को जरुर लायेंगे
इंतज़ार करते रात हुई तब कहीं बिटिया सोई ।।
इंतज़ार करते रात हुई तब कहीं बिटिया सोई ।।
हर मोड़ पे हर सिम्त लुट रही है आबरू यहाँ
काट रहे वो फसल जो हमने कभी नहीं बोई ।।
काट रहे वो फसल जो हमने कभी नहीं बोई ।।
दिल चाहे थोड़ा सा रोलूं माँ के पहलु में जाकर
काश के दे दे मुझको पलभर अपना आँचल कोई।।
काश के दे दे मुझको पलभर अपना आँचल कोई।।
" मनोज नायाब "
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