पलकों के किनारे palakon ke kinare

ग़ज़ल
पलकों की किनारों को ज़रा खुला रहने दो
उफनते समंदर को इन आँखों से बहने दो

क्यूँ बार बार पूछते हो उसको हादसे की बातें
दिल को अपनी आपबीती खुद ही कहने दो

बड़ी महँगी है तेरी रोज़ रोज़ की दरियादिली
जिसका दर्द है ए दिल बस उसी को सहने दो

टूट चूका अंदर तक उनके ज़ुल्मों सितम से
"नायाब" इसी गलत फहमी में उनको रहने दो ।

मनोज "नायाब"

Comments

Popular posts from this blog

हां हिन्दू हूँ

13 का पहाड़ा

यहाँ थूकना मना है yahan thukna mana hai