धरती का ब्यांह

धरती का ब्यांह
वाह रे खुदा,
तुम तो कमाल के सुनार निकले,
धरती को किसी गहने की तरह गढ़ दिया,
कायनात को सजा दिया दुल्हन की तरह,
करीने से की हुई गुलाब के फूलों की नक्काशी
गहरे हरे दरख्तों की हरी मीनाकारी
सरसों के खेत की सोने की क्यारी
बीच बीच में जड़े हुए सफ़ेद बर्फीले पहाड़ों के
चमकीले नग
मन को मोह रहा है यूँ
तूं कोई जादूगर है या कोई ठग
घहरा घना सफ़ेद कोहरा
मानो कोई सुनार चमका रहा अपने
पुराने गहनों को हर साल चुने के पाउडर से
और धो रहा ओस की बूंदों से
फिर पोंछ देता,सुखा देता मखमली धुप
के साफ़ कपड़े से,
सांझ का ढलता सिंदूरी सूरज मानो हाथ में
थामें सिंदूर की डिबिया
साथ में पीछे पीछे सितारों की लेकर बारात
टूटते तारों की करता आतिशबाजी
आकाश आज आया है धरती से ब्यांह रचाने ।
" मनोज नायाब "

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