बहरूपिया समाज bahrupiya samaj
बहरूपिया समाज....... ( भाग-1)
किसी भी राष्ट्र रूपी किले का निर्माण समाज रूपी छोटी छोटी इंटों से होता है, राष्ट्र की मजबूती के लिए इन इंटों का मजबूत होना भी जरूरी है, ये इंटें तब मजबूती होगी जब ये अपनी भाषा,संस्कृति एवं पहनावे से उन्नत रहेगा । समाज एक पाठशाला है तो परिवार उसकी कक्षाएं है, इन कक्षाओं की शिक्षिका उस परिवार की नारी होती है, क्यूंकि वही है जो संस्कार देती है, परन्तु संस्कार देने वाली नारी स्वंय मार्ग से विचलित हो जाये तो कितने भयावय परिणाम होंगे, कल्पना करके देखें ।
निज की भाषा के बिना समाज गूंगा कहलाता है, और निज की वेशभूषा को त्याग कर कोई और वेशभूषा को अपनाता है तो वह बहरूपिया कहलाता है, यानि है कुछ और मगर दिखता कुछ और, भाषा को बचाने का प्रयास हम और हमारे संगठनों ने लगभग समाज को उनके हाल पर छोड़ दिया है । यह एक तरह से लाचारी जतला रही है, जहाँ तक सवाल है पहनावे का विशेषकर महिलाओं का वो प्रकाश के वेग सा मगर चुप चाप बदला जा रहा है ।दरअसल हमारे समाज के बुद्धिजीवी एवं समाज सुधारक पहले तो इन विषयों पर काफी मुखरता से बोल करते थे तथा हर सामाजिक मंचों पर इन बातों को उठाते थे । मगर अचानक और आश्चर्य जनक रूप से उन्होंने अपनी जबान पर ताले जड़ लिए, इन विषयों से कन्नी काटने लगे, जिससे लोगों पर एक सामाजिक दबाव जो पहले थोड़ा बहुत था वो हट गया । उनकी इस चुप्पी का कारण खोजना चाहा तो अंत में मैं इस नतीजे पर पंहुचा की जो लोग भाषा, संस्कृति और पहनावे की बात किया करते थे दरअसल समाजिक वर्जनाएं एवं मर्यादाएं उन्हीं के घर से टूटनी प्रारंभ हुई । फलस्वरूप उन्होंने यानि बुद्धिजीवी यानी समाज सेवा से जुड़े लोगों ने इन बातों को अपने भाषणों एवं सामाजिक एजेंडे से चुपके से निकाल दिया ................................................शेष भाग अगले अंक में
मनोज नायाब
निज की भाषा के बिना समाज गूंगा कहलाता है, और निज की वेशभूषा को त्याग कर कोई और वेशभूषा को अपनाता है तो वह बहरूपिया कहलाता है, यानि है कुछ और मगर दिखता कुछ और, भाषा को बचाने का प्रयास हम और हमारे संगठनों ने लगभग समाज को उनके हाल पर छोड़ दिया है । यह एक तरह से लाचारी जतला रही है, जहाँ तक सवाल है पहनावे का विशेषकर महिलाओं का वो प्रकाश के वेग सा मगर चुप चाप बदला जा रहा है ।दरअसल हमारे समाज के बुद्धिजीवी एवं समाज सुधारक पहले तो इन विषयों पर काफी मुखरता से बोल करते थे तथा हर सामाजिक मंचों पर इन बातों को उठाते थे । मगर अचानक और आश्चर्य जनक रूप से उन्होंने अपनी जबान पर ताले जड़ लिए, इन विषयों से कन्नी काटने लगे, जिससे लोगों पर एक सामाजिक दबाव जो पहले थोड़ा बहुत था वो हट गया । उनकी इस चुप्पी का कारण खोजना चाहा तो अंत में मैं इस नतीजे पर पंहुचा की जो लोग भाषा, संस्कृति और पहनावे की बात किया करते थे दरअसल समाजिक वर्जनाएं एवं मर्यादाएं उन्हीं के घर से टूटनी प्रारंभ हुई । फलस्वरूप उन्होंने यानि बुद्धिजीवी यानी समाज सेवा से जुड़े लोगों ने इन बातों को अपने भाषणों एवं सामाजिक एजेंडे से चुपके से निकाल दिया ................................................शेष भाग अगले अंक में
मनोज नायाब
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