अहंकार ahankaar
अहंकार के अधजले टुकड़े
लालच की लपलपाती लौ में
लोभ की लपटों के बीच
जले हुए झूठ की राखके साथ
मौत के बाद
चिता के साथ
सब जलकर भस्मीभूत हो जाता है
बस इन सब दुष्कर्मों की कालिख
उड़ कर पहुंचती हैआसमान के उस पार
और साथ जाता है,
पुरुषार्थ की अग्नि में
तपकरप्रेम की ऊष्मा से कर्म वाष्प बनकर
आसमान के पार पहुँच पाते हैं
वही वाष्प पिघलकर पसीजकर
विधाता की कलम की स्याहीबन जाता है
और उसी स्याही से लिखा जाता है
तुम्हारे जन्मों का हिसाब
जैसी स्याही वैसा रंग
सोचो क्या चाहिए
झूठ की राखसे बनी कालिख की कलुषता
या फिर वो उजली स्याही
अब भी समय है सोच लो ।
-मनोज नायाब
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