Phasal ishka ki...फसल इश्क की

हमने खतों की खुरपियों से
दिल की बंजर भूमि को खंगालकर
इश्क के कुछ बीज बोये
ख्वाहिशों के हल बांधे
अरमानों के बैल जोते
वफ़ा की खाद डाली
बस फिर क्या था
कसमों की कोंपले निकल आई
इश्क के बीज अंकुरित हो गए
वादों की पतियाँ हरी हुई
रस्मों की अनचाही खर पतवार
होसलों की कतरनी से काटी
प्रेम के फूल खिले ही थे
मिलन के फल अधपके हुए ही थे
इश्क की फसल
जवानी के घुटनों तक उग आई ही थी
तुम्हारी वफ़ा के सूखे ने
वादा खिलाफी की टिड्डियों ने
मेरे इश्क की फसल को
तबाह कर डाला ।                     
"मनोज नायाब"

Comments

Popular posts from this blog

हां हिन्दू हूँ

13 का पहाड़ा

यहाँ थूकना मना है yahan thukna mana hai