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Showing posts from November, 2015

अरमानों की खाक

मैंने देखा था आज किसी के अरमानों  को खाक होते हुए मैंने देखा था आज किसी के सपनों को धूं धूं कर जलते हुए । मैंने देखा था आज किसी के सुनहरे भविष्य को  पल भर में राख होते हुए एक शख़्स बदहवास सा जले हुए मलबे के ढेर से ढूंढ रहा था वो पैसे कमाई हुई वो जमा पूंजी जो जीवन की भट्टी में अरमानों का किरासिन डाल कर पकाई थी कभी जिसका हिसाब  उसकी पत्नी रोज़ाना उँगलियों पर करती थी और पूछती थी  अब कितने जमा हो गए जो उसने और उसकी पत्नी ने पेट काटकर जमा किये थे  अपनी बिटिया की शादी के लिए  आज ही बैंक से निकाले थे  आज मेरे मुहल्ले के बाजार में आग लगी थी  सब व्यस्त थे अपने मोबाइल से तस्वीरें खीचने में मगर मेरा ध्यान उस शख्स पर ही था अभी भी जो जलते अंगारों की परवाह किये बगैर खंगाल रहा था जला मलबा इस उम्मीद के साथ की  पैसे शायद साबुत हों । मैं अपने बहते आंसू रोक नहीं पाया और आस पास के लोगों से छुपाने के लिए ये कहता रहा की धुंए से जल रही है । मनोज नायाब

dil ki maszid दिल की मस्ज़िद

दिल की मस्ज़िद में हर रोज़ होता है यादों का सज़दा एक नमाज़ी ऐसा भी जो गैर हाज़िर होकर भी लगा जाता है हर रोज़ यादों में हाज़िरी

सितारों भरा आसमान sitaron bhara aasmaan

मुठी भर वफ़ा के सितारे चंद कतरे मुहब्बत की चांदनी के कुछ जज़्बाती बादल बस कोई इतना सामान मुझे मुहैया करवा दे तो ज़मीन पे मैं भी तुम्हारे लिए सितारों भरा आसमान बसा दूँ ।

मेरा सजन नुक्कड़ का हलवाई

मेरा सजन उस नुक्कड़ के हलवाई की तरह जिसने मुलाकात के लम्हों की सारी सामग्री इकट्ठा की और उनको लोइयां बनाकर इश्क की मंद मंद आंच पर दिल की कढ़ाई में पकाया और वादों और खवाबों की चासनी में डुबोया बस फिर क्या था एक लज़ीज़ पकवान तैयार था जिसका नाम होठों की तख्ती पर मुहब्बत लिखा और टांग दिया इश्क की दुकान पर फिर शाम तक बेच डाला अगले दिन फिर कोई नए लम्हों की नई सामग्री नए ख्वाबों की चासनी नया दिल वह रे सजन तेरी इश्क की दूकान तो खूब चलती है आजकल । मनोज नायाब #नुक्कड़#nukkad#halwai# mithai#

ek parinda. एक परिंदा

किसी ने देखा क्या मेरे बच्चों को यहीं तो छोड़कर गया था मैँ कुछ देर पहले एक परिंदा बदहवास सा ढूंढ रहा अपना घोंसला यहाँ हुआ करता था एक बूढ़ा शज़र । जाने किसने काट डाला कहाँ होंगे कैसे होंगे अभी ठीक से उड़ना भी नहीं आया था उनको । "मनोज नायाब"

Fasad kai dafa ho फसाद कई दफा हो गए

उनके ज़ुल्मों को तुमने जलवों की तरह पेश किया अब हमने चढ़ा ली बाजुएँ तो साहब इस कदर खफा हो गए  अपने दिलोदिमाग पे ज़रा ज़ोर डालो फसाद शहर में कई दफा हो गए । उनकी खिदमत में कसीदे जो गढ़े  तो मायने इसके अहले वफ़ा हो गए । तुम यदि नहीं हो सियासतदार इस मुल्क के तो नायाब फैसले क्युं ये एक तरफा हो गए । "मनोज नायाब"

कुछ तो दिल में है kuch to dil main hai

ग़ज़ल kuch to hai dil mai jo kehna chahte ho warna ye hothon pe tharthrahat kyu hai koi manzar haseen sa chupa rakhe ho dil mai warna aankhon men aaj ye ghbrahat kyu hai ub iss imarat mai mere siwa koi nahi rehta phir ye kisike aane Ki naayaab aahat kyu hai lut raha hai ye mulk  sare aam mere maula ub lahu se nadarad wo jhanjhnahat kyu hai

Husn ki aag हुस्न की आग

ग़ज़ल हुस्न की आग में इश्क भी खाक हो जाता है सजदा सादगी से किया तो पाक हो जाता है कौन चल सका है तेरी शोखियों की धार पे नज़रें मिली नहीं की दिल हलाक हो जाता है ये तो नज़र नज़र का खेल है मेरे दोस्त यूँ तो बुरी नज़र से शहद भी आक हो जाता है संसद में आज फेंकी नहीं गयी कुर्सियां क्यूंकि ऐसा भी कभी कभी नायाब इतेफाक हो जाता है मनोज नायाब सज़दा#sansad#pak# aag

पलकों के किनारों को palakon ke kinaron ko....

ग़ज़ल पलकों की किनारों को ज़रा खुला रहने दो उफनते समंदर को इन आँखों से बहने दो क्यूँ बार बार पूछते हो उसको हादसे की बातें दिल को अपनी आपबीती खुद ही कहने दो बड़ी महँगी है तेरी रोज़ रोज़ की दरियादिली जिसका दर्द है ए दिल बस उसी को सहने दो टूट चूका अंदर तक उनके ज़ुल्मों सितम से "नायाब" इसी गलत फहमी में उनको रहने दो । मनोज "नायाब" #dard#samunder#dil#

Zameen jiska bichauna. ज़मींन जिसका

ग़ज़ल ज़मीन जिसका बिछौना और आसमान शामियाना है । मैं वो मज़दूर हूँ गरीब की दुआएं जिसका मेहनताना है । ताउम्र जीते रहे तुझे ढूंढने में ए संग दिल ज़िन्दगी शुक्रिया मौत तेरा इक तूने ही हमें बखूबी पहचाना है । क्यूँ न इतराये अपनी अमीरी पर  नायाब तुम ही बताओ जिसकी तिज़ोरी में बहन की राखी और माँ के हाथ का बना खाना है । ना हुस्न में वो तहज़ीब बची न इश्क में वो तमीज  सलीके की मुहब्बत न मुहब्बत का सलीका जाने किस मोड़ पे ज़माना है । सीखले ए दिल फाकाकशी में जीने की सभी तरकीबें जिस तरह लूटा रहे हो बाकी वक्त लगता है ग़ुरबत में बिताना है । महबूब आते हैं और कुछ वक्त बिता कर लौट जाते हैं  मानो दिल दिल नहीं रहगुज़र पे बना कोई मेहमानखाना है । " मनोज नायाब "

My contact no.s

My contact no. +919859913535 Landline phone no. 03612606804 Email id manojnaayaab@gmail.com  

Jaane kitni hi baar जाने कितनी ही बार

" जानें कितनी ही बार " meri nanhi kalam ki baanh marodi jaane kitni hi baar harfo,n ki hifazat na kar paya mai jaane kitNi hi baar meri likhi baato pe tanz kase logo ne jaane kitni Hi baar iss rah mai mere apne nikle paraye,  jaane kitni hi baar kabhi parayo ne mujhe saraha  jaane kitni hi baar mera shayar hona akhara Kitno ko jaane kitni hi baar ghar ke aaino,n ne Mujhko jhutlaya jaane kitni hi baar mere bholi kavitaon ko dhamkaya jaane KitNi hi baar meri ghazlo ka munh Nocha logo ne  jaane kitni hi baar meri Nazmo'n ko teero Se Bindha  jaane kitNi Hi baar " naayaab "kabhi na darna bus likhte jaana  yu hi tu her baar "मनोज नायाब "

बहरूपिया समाज bahrupiya samaj

बहरूपिया समाज....... ( भाग-1) किसी भी राष्ट्र रूपी किले का निर्माण समाज रूपी छोटी छोटी इंटों से होता है, राष्ट्र की मजबूती के लिए इन इंटों का मजबूत होना भी जरूरी है, ये इंटें तब मजबूती होगी जब ये अपनी भाषा,संस्कृति एवं पहनावे से उन्नत रहेगा । समाज एक पाठशाला है तो परिवार उसकी कक्षाएं है, इन कक्षाओं की शिक्षिका उस परिवार की नारी होती है, क्यूंकि वही है जो संस्कार देती है, परन्तु संस्कार देने वाली नारी स्वंय मार्ग से विचलित हो जाये तो कितने भयावय परिणाम होंगे, कल्पना करके देखें । निज की भाषा के बिना समाज गूंगा कहलाता है, और निज की वेशभूषा को त्याग कर कोई और वेशभूषा को अपनाता है तो वह बहरूपिया कहलाता है, यानि है कुछ और मगर दिखता कुछ और, भाषा को बचाने का प्रयास हम और हमारे संगठनों ने लगभग समाज को उनके हाल पर छोड़ दिया है । यह एक तरह से लाचारी जतला रही है, जहाँ तक सवाल है पहनावे का विशेषकर महिलाओं का वो प्रकाश के वेग सा मगर चुप चाप बदला जा रहा है ।दरअसल हमारे समाज के बुद्धिजीवी एवं समाज सुधारक पहले तो इन विषयों पर काफी मुखरता से बोल करते थे तथा हर सामाजिक मंचों पर इन बातों को उठाते थे ।

Kuch yaaden कुछ यादें

कुछ यादें घर की चौखट के बाहर जलती, नशेडी चिल्लम्बाज़ सिगड़ी का धुँआ । कितनी गिल्लियां और गेंदें निगल चुका, चबूतरे वाला गहरा सा कुआँ । घर पे अकेली फिर भी घूँघट काढ़े काकी, जाने किसकी आ रही थी लाज । बरसों से अलिखित जबान का एक ही शब्द मिमियाती, रहीम चाचा की बकरियों की आवाज़ । चूना पुती सफ़ेद झक दिवार पे सजी भूरे रंग के उपलों की बिंदियाँ । मन्नत वाले पीपल के माथे पे बंधी रंग बिरंगे धागे और लाल पीली चिन्दियाँ रोज़ दूध के पतीले सुड़क जाती फिर भी आज़ाद घुमती आवारा शैतान बिल्ली दूध देती फिर भी जंजीर में जकड़ी भोली गाय की उड़ाती खिल्ली अपने गाँव की भूली बिसरी बातें याद कर कुछ बड़बड़ा रहा था कल रात तभी सोती बीवी झल्लाई और कहा, बंद भी करो ये बीते ज़माने के नीरस हिंदी लेखक की कहानियां पढ़ना, वैसे सच ही है हम शहरी लोंगो के लिए, ये कहानियां ही बनकर रह गयी है । मनोज " नायाब "

दिन भर दीवारों ने Din bhar diwaron ne...

ग़ज़ल दिन भर दीवारों ने इसलिए कान्धे पे धुप ढोई नायाब उसकी छाँव में बैठा था मुसाफिर कोई ।। एक ज़माना था की यारों के मेले से लगते थे अब फाकाकशी है तो पहचानता नहीं कोई ।। अब्बू आयेंगे तो कुछ खाने को जरुर लायेंगे इंतज़ार करते रात हुई तब कहीं बिटिया सोई ।। हर मोड़ पे हर सिम्त लुट रही है आबरू यहाँ काट रहे वो फसल जो हमने कभी नहीं बोई ।। दिल चाहे थोड़ा सा रोलूं माँ के पहलु में जाकर काश के दे दे मुझको पलभर अपना आँचल कोई।। " मनोज नायाब "

Yahan kachara ....

यहाँ कचरा फेंक कर गन्दगी न फैलाएं एक दीवार पे ये लिखा था की यहाँ कचरा फेंक कर गन्दगी न फैलाएं दिल करता है उस दीवार पे ये लिख दूँ की ये नसीहतें उन लोगों को दो जिन्होंने संसद को कूड़ेदान बना डाला लोकतंत्र के इस मंदिर में मिलते हैं देश की आबरू के छीले हुए छिलके वादों की झूठन आंकड़ों की रद्दी इसलिए कहता हूँ नायाब तुम नसीहतें दीवारों पे लिखना छोड़ दो है हिम्मत तो बढ़ो आगे उन दीवारों को तोड़ दो । मनोज नायाब

यहाँ थूकना मना है yahan thukna mana hai

" यहाँ थूकना मना है " मेरे मोहल्ले की एक दीवार पे लिखा था, " यहाँ थूकना मना है " मन तो कर रहा था उस दीवार पे ये लिख दूँ की जाओ थूकने का हौसला रखते हो तो उन खादी वालों पे थूको जिन्होनें देश की इज्ज़त को तार तार कर दिया अपने कुकर्मों से देश को शर्म सार कर दिया । जाओ थूकने का शौक है तो उन पे थूको जिन्होनें ईमान की सफेदी को भ्रष्टाचार से मैला कर दिया । जहाँ होती थी मिठास शहद सी, नेताओ की जात ने उसे कसेला कर सिया । थूकना है तो उन पे थूको जिन्होंने कश्मीर में खून की नदियाँ बहाई जिन्होंने सोमनाथ की दीवारें ढहाई जिनको कैद के बाद भी दे दी रिहाई उन्हीं लोगो ने खोदी विश्वास की खाई इस दीवार पे थूकने से क्या होगा मेरे भाई पीठ में छुरा घोंपने वाले उन बन्दों पे थूको थाली में छेद करने वाले जयचंदों पे थूको जिन्हें दिखती नहीं हिन्द की धमक दुनियां में थूकना है तो ऐसे आँख वाले अंधों पे थूको । इस दिवार पे थूकने से क्या होगा " मनोज नायाब "

पलकों के किनारे palakon ke kinare

ग़ज़ल पलकों की किनारों को ज़रा खुला रहने दो उफनते समंदर को इन आँखों से बहने दो क्यूँ बार बार पूछते हो उसको हादसे की बातें दिल को अपनी आपबीती खुद ही कहने दो बड़ी महँगी है तेरी रोज़ रोज़ की दरियादिली जिसका दर्द है ए दिल बस उसी को सहने दो टूट चूका अंदर तक उनके ज़ुल्मों सितम से "नायाब" इसी गलत फहमी में उनको रहने दो । मनोज "नायाब"

Maa माँ

माँ मुझको पढ़ने दे माँ मुझको तू पढने दे जीवन मेंआगे बढ़ने दे कच्ची उम्र में ब्यांह रचाकर मेरे सपनों को न सड़ने दे माँ मुझको तू पढने दे । मेरा जीवन नाज़ुक गहना उसको शिक्षा से गढ़ने दे । माँ मुझको तू पढने दे अभी उगा है जीवन सूर्य मुझे आसमान में चढ़ने दे । माँ मुझको तू पढने दे मुझ बिन तेरा आँगन सूना भैया से कुछ दिन लड़ने दे माँ मुझको तू पढने दे । न डाल मेरे पैरों में ज़ंज़ीरें खुले आसमान में उड़ने दे माँ मुझको तू पढ़ने दे । मनोज नायाब

कॉलेज के दिन college ke din

J कॉलेज के दिन Note: Untitled note कॉलेज के दिन बड़े याद आते हैं मगर कितने जल्दी गुजर गए, मुठी में रेत की तरह कब फिसल गए पता ही नहीं चला, एक अलग दुनिया थी कभी कभी ऐसा लगता है की पूरी कॉलेज लाइफ जी नहीं पाये काश कोई लौटा दे वो दिन फिर से न branded kapde न महंगे मोबाइल फ़ोन जेब में गिनती की pocket money मगर फिर भी कोई गिला शिकवा नहीं था दिल के राजा थे आज सब कुछ है फिर भी उन दिनों सी बात कहाँ । दोस्तों से शर्त लगती तो उन्हीं से पैसे उधार लेकर चाय पिला देते थे और 20 रुपये के बिल चुकाने के लिए भी मीठी सी तकरार होती थी । कॉलेज में पढ़ने वाली लड़कियों को अपनी मर्ज़ी से सभी दोस्त girl frnd बनाकर बाँट लेते और फिर एक दूजे को छेड़ते और खयाली पुलाव पकाते रहते थे वो भी क्या दिन थे भले ही उससे कभी बात करने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाए । कॉलेज के पीछे वाली गली के हनुमान मंदिर की दीवारों पे छुप छुप के अपना roll no. लिख दिया करते थे ताकि भगवानजी की हमारे roll no. याद रहे । नसीब वाले ही होंगे जिन्हें वो कॉलेज के दोस्त आज मिल जाते है दुबारा जीवन के इस मोड़ पे इतने दूर होकर भी । शायद इसी का नाम जिंदगी है जो

Mera pushteni gaon

मेरा गांव (अपना पुश्तैनी गांव छोड़ते वक्त) बरसों बाद मिला हूँ जैसे आज कई बिछड़ों से जोड़ दिया किसी ने जैसे कटे सरों को धड़ों से दुआओं से झोली भर कर साथ लाया हूँ मिल कर आया हूँ अपने बुजुर्गों से बड़ों से बंद बोतलें बस प्यास ही बुझा सकती है अब जाकर तृप्त हुआ मैं आँगन के घड़ों से झूठी बुलंदियों में जीता रहा तूं बनके टहनियां नायाब असलियत जान गया जो मिलकर आया अपनी जड़ों से ।। "मनोज नायाब" #मेरा गाँव" #gaon# पुश्तैनी

" Ghazal " teri aankhon ki maykashi

ग़ज़ल तेरी आँखों की मयकशी का नहीं कोई जवाब  इतना नशा की बनी ही नहीं ऐसी कोई शराब अब ये जाना की अश्कों में क्यूँ होता है नमक  दर्द ए समंदर जो पाल रखे है दिल ने बेहिसाब सुनो बे पर्दा यूँ छत पे न जाया करो तुम आइंदा देखा नहीं जल रहा है किस कदर ये आफताब। चाँद जन्नत खुदा सब को आजमाकर देखा मैंने "नायाब" हर बार लगे तुम ही तुम मुझे लाजवाब  "मनोज नायाब" #आँखें#नशा# nasha#samander

ग़ज़ल ये दीवाना

ग़ज़ल ये दीवाना तेरे साथ बगीचे में जानती हो क्यूँ चला आता है । तुम साथ होती हो तो गुलाबों को चिढ़ाने में मज़ा आता है । सच कहूँ मुझसे फूलों की हालत देखी नहीं जाती उस वक्त जब भंवरा भी उन्हें  छोड़ कर बस तेरे इर्द गिर्द मंडराता है । तुम जो निकलती हो रात को भूले से कभी खुले गेसुओं में । चाँद को भी ज़मीं पे बदली से घिरा इक चाँद नज़र आता है । मनोज नायाब # diwana#gulab#chand#दीवाना#चाँद#गुलाब#

Ghazal प्यार होता मगर...

ग़ज़ल प्यार होता शर्त मगर हाथों में हाथ की थी । आग जलती कमी बस इक बरसात की थी । ए सूरज तुम अब आए तो क्या आए तुम्हारी जरुरत तो मुझे कल रात की थी । माना जल गया आशियाना पर रौशनी तो हुई तसल्ली मुझे बस इसी एक बात की थी । तुम मांग बैठे ताउम्र का साथ मुझसे बात तो बस नायाब एक मुलाकात की थी । " मनोज नायाब " #pyar#ghazal#dil#barsaat#aag

एक बेरोज़गार युवक ek berozgaar yuvak

एक बेरोजगार युवक डिग्रियों के कागजात नत्थी किये हुए, एक फाइल, हर साल दिवाली पर फ़क्र से निकलता हूँ और झाड़ पोंछ के मायूसी से रख दिया करता हूँ माँ ने कहा खाली  बैठा क्या करेगा जा छत पे बिस्तर धूप लगा देना आचार के मर्तबान रखे हैं कौवे आये तो भगा देना पिताजी ने कहा हरे ताज़े मटर लाया हूँ छील देना पड़ोस की चाची को दवा ला देना मुनिया को स्कूल से ले आता हूँ गोलू को होमवर्क करवा देता हूँ ये दोनों बड़े भैया के बच्चे हैं कल दिल्ली वाले मामा का टेलीफोन आया माँ से कह रहे थे छोड़ो ये सरकारी नौकरी के ख्वाब मेरे पास भेज दो कुछ काम सीखेगा 3000/- महिना दे दूंगा खाना पीना रहना अलग और क्या चाहिए अब में बेरोजगार नहीं हूँ मुझे भी काम मिल गया मेरे मामा की अपने मोहल्ले में किराने की दुकान है । ट्रेन में जब खाने का पैकेट खोला तो देखा रोटी के नीचे बिछे थे डिग्री के कागजात मार्क्सशीट के फटे हुए टुकड़े उसी वक्त आँख से पानी निकल गया, चलो डिग्रीयां कुछ तो काम आई । " मनोज नायाब " आपका " मनोज नायाब "

धरती का ब्यांह

धरती का ब्यांह वाह रे खुदा, तुम तो कमाल के सुनार निकले, धरती को किसी गहने की तरह गढ़ दिया, कायनात को सजा दिया दुल्हन की तरह, करीने से की हुई गुलाब के फूलों की नक्काशी गहरे हरे दरख्तों की हरी मीनाकारी सरसों के खेत की सोने की क्यारी बीच बीच में जड़े हुए सफ़ेद बर्फीले पहाड़ों के चमकीले नग मन को मोह रहा है यूँ तूं कोई जादूगर है या कोई ठग घहरा घना सफ़ेद कोहरा मानो कोई सुनार चमका रहा अपने पुराने गहनों को हर साल चुने के पाउडर से और धो रहा ओस की बूंदों से फिर पोंछ देता,सुखा देता मखमली धुप के साफ़ कपड़े से, सांझ का ढलता सिंदूरी सूरज मानो हाथ में थामें सिंदूर की डिबिया साथ में पीछे पीछे सितारों की लेकर बारात टूटते तारों की करता आतिशबाजी आकाश आज आया है धरती से ब्यांह रचाने । " मनोज नायाब "

क़िताबें kitaben

नज़्म रोजाना घर आता हूँ कभी बड़बोली टीवी तो कभी सर चढ़े मोबाइल से सर खपाता हूँ और सो जाता हूँ । अक्सर कुछ अल्फाज़ किताबी कमरे में पन्नों के दरवाज़ों के पीछे किसी बच्चे की तरह पहनकर जज्बातों के नए कपड़े स्याही के श्रृंगार कर कुछ हरफों का बनाकर झुण्ड पीछे छुप जाते हैं और इंतज़ार करते हैं की मैं जैसे ही आऊंगा तो भों करके मुझे चौंका देंगे फिर ख़ुशी से उछलकर तालियाँ बजाएँगे और कहेंगे हमें  पढो हम कैसे लग रहे हैं बताओ न आपकी टीवी से अच्छी लगती हूँ न मगर रोजाना इंतजार कर मायूस हो जाते हैं सचमुच मुझे इल्म ही नहीं था की दराज़ में रक्खी कुछ बैचेन किताबें बाट जोहती है रोजाना मेरी रोज़ सज सवंरकर अल्फाज़ आँखे बंद किये हुए छुप जाते हैं और घंटों इंतज़ार के बाद थक हार कर उन्ही कपड़ों में सो जाते है, और नींद में बडबडाते हैं , आने दो इस बार बात नहीं करुँगी । शायद भूलता जा रहा हूँ इन्हें । ये किताबें मेरे बच्चों की तरह है ।। "मनोज नायाब"

Tumhare liye तुम्हारे लिए

तुम्हारे लिए मुठी भर वफ़ा के सितारे चंद कतरे  मुहब्बत की चांदनी के कुछ जज़्बाती बादल बस कोई इतना सामान  मुझे मुहैया करवा दे तो ज़मीन पे मैं भी  तुम्हारे लिए सितारों भरा आसमान  बसा दूँ । "मनोज नायाब"  

इश्क ए व्यापार ishk e vyapar

इश्क ए व्यापार क्या कहूँ पेशा उनका इश्क-ए-व्यापार निकला उजाले में जाके देखा  खंज़र आर पार निकला । हम तो कभी झुके ही नहीं हुस्न की अदाओं पे  पर क्या कहूँ की दिल ही बड़ा गद्दार निकला । जब रखा था कलेजे में दिल तो पत्थर सा था अब अरसे बाद संभाला तो ज़ार ज़ार निकला । मर गया तिश्नगी से पर घूंट भर भी नहीं पिया वादे से "नायाब" तू तो बड़ा ही खुद्दार निकला । " मनोज नायाब "

Munh zor kalam मुंह ज़ोर कलम

मुंह ज़ोर कलम कलम बड़ी मुँह ज़ोर हो चली है आजकल सुनती ही नहीं बात कुछ कहता हूँ तो पलट कर जवाब देती है बड़ी बद्तमीज़ हो चली है इन दिनों  सच बोलने पर  कागज़ का मुँह नोचने लगती कभी नन्हे और शांत आखर मुस्कुराकर जज़्बातों की बात करते हैं तो उनको भी धकियाने लगती है क्या कहूँ घोर कलयुग  आजकल की कलमें भी है ना बस मत पूछो, पिछले इतवार को मुहल्ले में नेताजी पुरे लाव लश्कर के साथ वोट मांगने आये थे पिछली बार की तरह वादों का पिटारा लेकर, सोचा कुछ पोल खोलूं कागज़ पर लिखकर पर कलम साफ़ मुकर गयी  कहने लगी मुझे नासमझ जीत गए तो काम आएंगे उल्टा मुझे ही समझाने लगी की क्या पता कोई ठेका दिलवादे या कोई पेट्रोल पंप allot करवा दे  या और कुछ नहीं तो कोई पुरस्कार ही दिलवादे । तो ये बात है ये कलम भी अब जुगाड़ की राजनीति में लग गयी  जाने क्या होगा इस देश का  अब तो ये कलम भी  कोई पक्ष तो कोई विपक्ष की तरफ  बड़ी मुंह जोर हो चली है आजकल । Posted from WordPress for Android

Maa mujhe mat maaro माँ मुझे मत मारो

माँ मुझे मत मारो माँ देखो ना मैं क्या लाई हूँ तुम्हारे लिए गॉड अंकल ने ये भाग्य की पोटली तुम्हारे लिए भेजी है माँ मेरे आते ही तेरा घर खुशियों से भर जायेगा माँ भगवानजी ने कहा था की जा बेटी तुझे बहुत ही अच्छे कुल में जन्म लेना है  तेरे माँ बाप बहुत ही अच्छे संस्कार वाले हैं तुझे पलकों पे बिठा कर रखेंगे अब एक बात कह देती हूँ माँ मुझे खूब खिलोने नए कपड़े कान के झुमके लिपिस्टिक बिंदी सब चाहिए मुझे दोगी ना माँ मेरी अच्छी माँ । चलो अब मुझे जल्दी से नयी दुनियां में ले आओ । पर देखो ना ये डॉक्टर अंकल के हाथ  में क्या है, ये बड़े बड़े बड़े चाकू छुरी औज़ार सुइयां, माँ बहुत दर्द होगा माँ  कितना खून बहेगा माँ  माँ मुझे बचा लो माँ प्लीज मुझे बचा लो मेरे अधपके कोमल शरीर को औज़ारों से नोचेंगे माँ मेरे शरीर के टुकड़े टुकड़े कर डालेंगे माँ । ये सुइयां मेरे आँखों में धंस जायेगी माँ  चाकू से मेरे शरीर की बोटी बोटी कर डालेंगे इन जहरीली दवाओं से मेरा शरीर मोम की तरह गला देंगे माँ माँ मुझे बचाओगी न माँ बोलो माँ बोलती क्यों  नहीं माँ । पापा मुझे बचाने जरूर आएँगे माँ पा

ishk ki dukaan इश्क की दुकान

इश्क की दुकान मेरा सजन उस नुक्कड़ के हलवाई की तरह जिसने मुलाकात के लम्हों की सारी सामग्री इकट्ठा की और उनको लोइयां बनाई इश्क की मंद मंद आंच पर दिल की कढ़ाई में खूब पकाया  वादों और खवाबों की चासनी में डुबोया बस फिर क्या था मुहब्बत नाम का एक लज़ीज़ पकवान  तैयार था जिसका नाम होठों की तख्ती पर मुहब्बत कीमत के साथ लिखा और टांग दिया  इश्क की दुकान पर फिर क्या शाम तक बेच डाला  अगले दिन फिर कोई नए लम्हों की नई सामग्री  नए ख्वाबों की चासनी नया दिल वाह रे सजन तेरी इश्क की दुकान  तो खूब चलती है आजकल ।

अहंकार ahankaar

अहंकार के अधजले टुकड़े लालच की लपलपाती लौ में लोभ की लपटों के बीच जले हुए झूठ की राखके साथ मौत के बाद चिता के साथ सब जलकर भस्मीभूत हो जाता है  बस इन सब दुष्कर्मों की कालिख  उड़ कर पहुंचती हैआसमान के उस पार और साथ जाता है, पुरुषार्थ की अग्नि में  तपकरप्रेम की ऊष्मा से कर्म वाष्प बनकर आसमान के पार पहुँच पाते  हैं वही वाष्प पिघलकर पसीजकर विधाता की कलम की स्याहीबन जाता है और उसी स्याही से लिखा जाता है तुम्हारे जन्मों का हिसाब जैसी स्याही वैसा रंग सोचो क्या चाहिए  झूठ की राखसे बनी कालिख  की कलुषता  या  फिर वो उजली स्याही  अब भी समय है सोच लो ।  -मनोज नायाब

Peshawar ke pishach पेशावर के पिशाच

पेशावर के पिशाच ए खुदा तू भी शर्मिंदा मैँ भी शर्मिंदा आँखें दोनों की नम है   आज शहर की गलियों में जनाजे इतने की काँधे भी कम है कोई जानवर दिखता तो हिफाज़त कर लेता अपने बच्चों की  मैं क्या जानूँ की इंसानी भेष में भी भेड़िये और यम है । सुबह कह रहा था अम्मी से बड़ा होके पायलट बनूँगा वो क्या जानता था की ख्वाहिसों के विमान में साँसों का इंधन कम है छोड़ दो ना बन्दुक वाले अंकल अम्मी बहुत रोयेगी मुझे बुखार भी आता है तो सो नहीं पाती अम्मी दिल की बहुत नरम है । बहन को लगी थी गोली तो अनीस का लहू भी खौला होगा माँ ने छू कर के देखा था बहता खून अभी भी गरम है । यहाँ दुश्मन के बच्चों को भी गोद में उठा चूम लेते हैं हम, क्यों हाथ नहीं कांपे गोली चलाते वक्त ये कैसा तेरा मजहब ओ धर्म है । मैँ न उठा सकूँगा अपने ही बच्चों के जनाजे  बूढ़े बाप के कांधों में अब कहाँ इतना दम है अरे दोस्त आज सड़कों पर लोग क्यों कूट रहे हैं छातियाँ  नायाब बड़ा अजीब शहर है तेरा यहाँ आज क्या कोई मुहर्रम है । तू भी खाना और अपने दोस्तों को भी खिला देना माँ ने दुलट कर डाली थी टिफ़िन में रोटियां अभी भी

Ab bhi samay hai अब भी समय है

अहंकार के अधजले टुकड़े लालच की लपलपाती लौ में लोभ की लपटों के बीच जले हुए झूठ की राख के साथ मौत के बाद चिता के साथ सब जलकर भस्मीभूत हो जाता है । बस इन सब दुष्कर्मों की कालिख उड़ कर पहुंचती है आसमान के उस पार और साथ जाता है, पुरुषार्थ की अग्नि में तपकर प्रेम की ऊष्मा से कर्म वाष्प बनकर आसमान के पार पहुँच पाते हैं वही वाष्प पिघलकर पसीजकर विधाता की कलम की स्याही बन जाता है और उसी स्याही से लिखा जाता है तुम्हारे जन्मों का हिसाब जैसी स्याही वैसा रंग सोचो क्या चाहिए झूठ की राख से बनी कालिख की कलुषता या फिर वो उजली स्याही । अब भी समय है सोच लो । - " मनोज नायाब "

Puraskaar wapasi पुरस्कार वापसी

उनके ज़ुल्मों को तुमने जलवों की तरह पेश किया अब हमने चढ़ा ली बाजुएँ तो साहब इस कदर खफा हो गए अपने दिलोदिमाग पे ज़रा ज़ोर डालो फसाद शहर में कई दफा हो गए । उनकी खिदमत में कसीदे जो गढ़े तो मायने इसके अहले वफ़ा हो गए । तुम यदि नहीं हो सियासतदार इस मुल्क के तो नायाब फैसले क्युं ये एक तरफा हो गए । "मनोज नायाब"