Peshawar ke pishach पेशावर के पिशाच

पेशावर के पिशाच
ए खुदा तू भी शर्मिंदा मैँ भी शर्मिंदा आँखें दोनों की नम है 
 आज शहर की गलियों में जनाजे इतने की काँधे भी कम है

कोई जानवर दिखता तो हिफाज़त कर लेता अपने बच्चों की 
मैं क्या जानूँ की इंसानी भेष में भी भेड़िये और यम है ।

सुबह कह रहा था अम्मी से बड़ा होके पायलट बनूँगा
वो क्या जानता था की ख्वाहिसों के विमान में साँसों का इंधन कम है

छोड़ दो ना बन्दुक वाले अंकल अम्मी बहुत रोयेगी
मुझे बुखार भी आता है तो सो नहीं पाती अम्मी दिल की बहुत नरम है ।

बहन को लगी थी गोली तो अनीस का लहू भी खौला होगा
माँ ने छू कर के देखा था बहता खून अभी भी गरम है ।

यहाँ दुश्मन के बच्चों को भी गोद में उठा चूम लेते हैं हम,
क्यों हाथ नहीं कांपे गोली चलाते वक्त ये कैसा तेरा मजहब ओ धर्म है ।

मैँ न उठा सकूँगा अपने ही बच्चों के जनाजे 
बूढ़े बाप के कांधों में अब कहाँ इतना दम है

अरे दोस्त आज सड़कों पर लोग क्यों कूट रहे हैं छातियाँ 
नायाब बड़ा अजीब शहर है तेरा यहाँ आज क्या कोई मुहर्रम है ।

तू भी खाना और अपने दोस्तों को भी खिला देना
माँ ने दुलट कर डाली थी टिफ़िन में रोटियां अभी भी गरम है ।

Comments

Popular posts from this blog

13 का पहाड़ा

हां हिन्दू हूँ

तुझे कागज़ तो दिखाना होगा