क़िताबें kitaben

नज़्म
रोजाना घर आता हूँ
कभी बड़बोली टीवी
तो कभी सर चढ़े मोबाइल
से सर खपाता हूँ
और सो जाता हूँ ।
अक्सर कुछ अल्फाज़
किताबी कमरे में
पन्नों के दरवाज़ों
के पीछे किसी बच्चे की तरह
पहनकर जज्बातों के नए कपड़े
स्याही के श्रृंगार कर
कुछ हरफों का बनाकर झुण्ड
पीछे छुप जाते हैं
और इंतज़ार करते हैं की मैं
जैसे ही आऊंगा तो भों करके मुझे चौंका देंगे
फिर ख़ुशी से उछलकर तालियाँ बजाएँगे
और कहेंगे हमें  पढो हम कैसे लग रहे हैं
बताओ न आपकी टीवी से अच्छी लगती हूँ न
मगर रोजाना इंतजार कर मायूस हो जाते हैं
सचमुच मुझे इल्म ही नहीं था
की दराज़ में रक्खी कुछ बैचेन किताबें
बाट जोहती है रोजाना मेरी
रोज़ सज सवंरकर अल्फाज़
आँखे बंद किये हुए छुप जाते हैं
और घंटों इंतज़ार के बाद थक हार कर
उन्ही कपड़ों में सो जाते है,
और नींद में बडबडाते हैं ,
आने दो इस बार बात नहीं करुँगी ।
शायद भूलता जा रहा हूँ इन्हें ।
ये किताबें मेरे बच्चों की तरह है ।।
"मनोज नायाब"

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