Kuch yaaden कुछ यादें

कुछ यादें
घर की चौखट के बाहर जलती,
नशेडी चिल्लम्बाज़ सिगड़ी का धुँआ ।
कितनी गिल्लियां और गेंदें निगल चुका,
चबूतरे वाला गहरा सा कुआँ ।
घर पे अकेली फिर भी घूँघट काढ़े काकी,
जाने किसकी आ रही थी लाज ।
बरसों से अलिखित जबान का एक ही शब्द मिमियाती,
रहीम चाचा की बकरियों की आवाज़ ।
चूना पुती सफ़ेद झक दिवार पे सजी
भूरे रंग के उपलों की बिंदियाँ ।
मन्नत वाले पीपल के माथे पे बंधी रंग बिरंगे धागे और लाल पीली चिन्दियाँ
रोज़ दूध के पतीले सुड़क जाती फिर भी आज़ाद घुमती आवारा शैतान बिल्ली
दूध देती फिर भी जंजीर में जकड़ी भोली गाय की उड़ाती खिल्ली
अपने गाँव की भूली बिसरी बातें याद कर कुछ बड़बड़ा रहा था कल रात
तभी सोती बीवी झल्लाई और कहा,
बंद भी करो ये बीते ज़माने के नीरस
हिंदी लेखक की कहानियां पढ़ना,
वैसे सच ही है हम शहरी लोंगो के लिए,
ये कहानियां ही बनकर रह गयी है ।
मनोज " नायाब "

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