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Showing posts from September, 2024

युद्ध

युद्ध नरसंहार का सामान लादे गरजते जहाज, चीलें चीख रही आसमान में नीचे खेतों में बंदूकें बोई जा रही है, हवाएं विकराल हुई ओढ़कर  बारूदी गंध का खोल, इमारतें भयभीत हो  बार बार आकाश ताकती, नदियां अपने पानी को कलंकित होने से बचाने हेतु कूद रही सागर में  मानो जौहर कर रही हो  धरती पीट रही माथा स्वयं का की फिर मचेगा हाहाकार फिर गूंजेगी चीत्कार फिर बिछेंगी लाशें  फिर अनाथ होंगे बच्चे फिर विधवाएं करेंगी विलाप फिर गूंजेगा मर्सिया जानते हो ये सब क्यों हो रहा है  यह सब हो रहा है  सिर्फ सीमाओं पर लगी कंटीली बाड़ को थोड़ा  खिसकाने के लिए  सोच रहा हूँ इस हासिल की  कीमत कुछ ज्यादा नहीं है ?

अभी बहुत समय पड़ा है

अभी बहुत समय पड़ा है  यही  वहम सबसे बड़ा है  तुमको दिखता नहीं भले येकाल मुंह बाए खड़ा है

पिछली दीवार

कभी थे हम भी खूबसूरत  मगर मुझ पर अब नहीं टांगी जाती  खूबसूरत नदियों पहाड़ों की तस्वीरेँ कितने अक्स का गवाह हूँ मगर अब मुझे बैकग्राउंड बनाकर कोई नहीं खिंचवाता है फ़ोटो बीते वक्त का साक्षी हूँ मैं  मगर मुझ पर नहीं लगाई जाती  अब कोई दीवार घड़ी जाने कितने ही मुंडन विवाह श्राद्ध और हवन के लिए  मेरे मज़बूत कंधों पर रखकर  बांधे जाते थे बांस की बल्लियां से टैन्ट अब जब भी कोई जलसा होता है  रंगीन कपड़े से ढक दिया जाता हूँ  क्योंकि अब मैं बदरंग हो चला हूँ अब मुझ पर मरम्मत का खर्च भारी लगता है सबको पूरे घर में रंग रोगन होता है  हर साल दीवाली पर मगर मुझे छोड़कर । सब इसी इंतज़ार में है कि  एक वक्त के बाद मैं खुद  गिर जाऊंगा  गिन रहा हूँ मैं अपना आखिरी वक्त अब नहीं है मुझ पर ताज ओ तख्त अब भी नहीं पहचाने तो बताता हूँ मैं घर के पिछले हिस्से की दीवार सरीखा इस इस घर का बुजुर्ग हूँ ।

खारापन

तू तो अथाह होकर भी  प्यास बुझाता नहीं  मंदिर का चरणामृत भी कभी बन पाता नहीं बादलों ने हर बार मीठा पानी दिया था तुम्हें ए समंदर तुम्हारा खारापन है कि जाता नहीं

हौसलों की नाव है

नायाब -- बून्द का धरा पर गिर कर छिटकना  बिखराव नहीं ये फैलाव है । सुखी घास का जलना सर्द रातों में  आग नहीं ये तो अलाव है । रिसता हुआ लहू देख ज़रा ये कोई चोट नहीं बल्कि घाव है मुसीबतों का ज़लज़ला भी पस्त हो गया  हमारे पास भी हौसलों की नाव है 

मुस्कुराया मत कर

बिना चिलमन के इस तरह आया मत कर । अब आ ही गई हो तो वक्त ज़ाया मत कर । नशा उतरता नहीं है कई कई दिनों तक ज़ालिम मेरे सामने यूँ मुस्कुराया मत कर । मैं अक्सर देर से दफ्तर जाने लगा हूँ  तू सुबह सुबह सीने से लगाया मत कर । सुनता हूँ तो कलेजे में हुक सी उठती है यार तू नायाब  की ग़ज़लें गाया मत कर । कच्ची उम्र का नौजवान हूँ समझा करो यार ए हवा उनका दुपट्टा यूँ सरकाया मत कर । दिल की राहों में बिछी हुई है बारूदी सुरंगें यार तुम हुश्न की तीलियाँ जलाया मत कर हमने तो कर डाला है अब इज़हार ए इश्क़  तू मुझे परखने पर सर खपाया मत कर कमबख्त पानी से तेरे चेहरे पे खरोचें न आ जाए यार तुम ये रोज़ के रोज़ नहाया मत कर । मनोज नायाब ✍️

मर्यादा चूल्हे में

 संस्कृति है चूल्हे में परंपराएं पानी में रिश्तों को तोलते हैं अब लाभ हानि में चाचा चाची वाला प्यार कहीं खो गया पश्चिम की संस्कृति का बीज कौन बो गया  एक बच्चे वाला ट्रेंड जब से ये आ गया मौसा मौसी जैसे सब रिश्तों को खा गया  दादी के भजन देखो गुम कहीं हो गए सुबह को गंगा गाने वाले सुर सो गए रातों को रामायण की चौपाई सुनाते थे कांधे पे बिठा के हमें मेले में घुमाते थे  दीवाली को हर साल कपड़े सिलाते थे चार आने वाली हमें कुल्फी खिलाते थे वो दौर दादा दादी वाला कहीं खो गया कहानियों की जगह कौन कार्टून बो गया बातें अब रह गई है किस्सों में कहानी मैं कैंडल बुझाने वाले दीप क्या जलाएंगे Dj वाले युवा कैसे लोक गीत गाएंगे आंखों की शर्म देखो कैसे मर जाती है अधनंगे बदन से रील वो बनाती है भारत में नंगापन आम कैसे हो गया सावित्री का संस्कार नीलाम कैसे हो गया

दिन गुलाबी और शामें

दिन गुलाबी और शामें  सुनहरी नहीं हो पाती अगरचे ख्वाब में मेरे  वो परी नहीं आती दिल जलों ने फेंके है  मेरे सीने पे पत्थर ए सीप झील यूं ही  गहरी नहीं हो जाती... तपना पड़ता है मुसलसल  अपने हिस्से की ठंडक छोड़कर बादलों तुम क्या जानो भोर यूं ही  दोपहरी नहीं हो जाती.... कुछ तो करिश्मा है  उनकी निगाहों में ये आंखें यूं ही  बहरी नहीं हो जाती.... बड़े तूफान जिस्म पर झेले है चिलचिलाती धूप से खेले हैं मुसाफिर क्या जाने पत्तियां यूं ही  हरी नहीं हो जाती....

कुछ तो सिला देते

हज़ारों अंगवस्त्र जो हमने पहनाए बंदनवार लगा लगा कर जो मंच सजाए कितने स्वागत गीत आपके लिए गाए सैकड़ों बार मुख्य अतिथि जो हमने बनाए लाखों तालियां जो हमने बजाई सालों साल ताजपोशी जो हमने कराई स्वागत में आपके जो कुर्सियां बिछाई जब भी आपका दिल हुआ शक्ति प्रदर्शन का  हमने आकर भीड़ जुटाई उसका ये सिला दिया हुज़ूर । कुछ  कमी  रह गई  थी  तो बता देते, हमारे परिश्रम का कुछ तो सिला देते ।

लतीफे चाहिए

जो अस्मत बचा न सके उनके अब इस्तीफे चाहिए खुद ही लड़ेंगें हालात से नहीं हमें ये खलीफे चाहिए उनकी की शान ओ शौकत इसलिए भी बंद हो क्योंकि अब हमारे बच्चों को भी वजीफे चाहिए वो बचपन था जब हंस हंस के पेट दुख जाता था  अब तो मुस्कुराने के लिए भी लतीफे चाहिए