Friday, September 13, 2024

दिन गुलाबी और शामें


दिन गुलाबी और शामें 

सुनहरी नहीं हो पाती

अगरचे ख्वाब में मेरे 

वो परी नहीं आती


दिल जलों ने फेंके है 

मेरे सीने पे पत्थर

ए सीप झील यूं ही 

गहरी नहीं हो जाती...


तपना पड़ता है मुसलसल 

अपने हिस्से की ठंडक छोड़कर

बादलों तुम क्या जानो

भोर यूं ही  दोपहरी नहीं हो जाती....


कुछ तो करिश्मा है 

उनकी निगाहों में

ये आंखें यूं ही 

बहरी नहीं हो जाती....


बड़े तूफान जिस्म पर झेले है

चिलचिलाती धूप से खेले हैं

मुसाफिर क्या जाने पत्तियां यूं ही 

हरी नहीं हो जाती....

3 comments:

  1. सुन्दर | हिंदी दिवस पर शुभकामनाएं |

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  2. बहुत ही सुन्दर सार्थक और भावप्रवण रचना हिंदी दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं

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