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Showing posts from December, 2015

तब जाकर रोटी बनती है

कितना कुछ डाला जाता है  तब जाकर रोटी बनती है । भजन सुनाते लोरी गाते बचपन की बातें बतलाते माँ छलनी से आटा छनती है तब जाकर रोटी बनती है । संस्कारों का  पल्लू ओढ़कर जीवन भर का नेह निचोड़कर ममता के जल से आटा सनती है तब जाकर रोटी बनती है । हर पल तकती तेरी थाली एक पल भी वो रहे न खाली तेरे चेहरे की हँसी को देखकर माँ हर पल हर सांस मचलती है तब जाकर रोटी बनती है । तूने बस देखे है उजाले सोफे पर बैठे रहने वाले जाकर देख कभी चौके मैं धुंए से आँखें जलती है तब जाकर रोटी बनती है । जीवन भर जोड़ी पाई पाई बिना खिलाए कभी न खाई जाकर देख कभी हथेली गरम तवे से जब जलती है तब जाकर रोटी बनती है । बीवी को जुकाम भी हो जाता है तो होटल से खाना मंगवाया जाता है दर्द से कराहती हुई कांपती हुई माँ बलगम वाली खांसी खांसती हुई माँ दीवार को एक हाथ से थामती हुई माँ चाहे बुखार में कितनी ही तपती है तब भी घर में ही रोटी बनती है । कितना कुछ डाला जाता है तब जाकर रोटी बनती है । " मनोज नायाब" #रोटी#roti#maa#

अब चालीस के हो लिए ab chalis ke....

जीवन था कच्ची माटी की मूरत बन गयी है  इक परिपक्व सूरत रंग नए कुछ तो घोलिये  अब चालीस के हो लिए कुछ बनो अब धीर तुम औरों की समझो पीर तुम अब जाग भी जाओ ए सजन  जवानी में बहुत सो लिए ।               अब चालीस के हो लिए..... वो बातें थी तेरे जोश की नहीं उम्र थी वो होश की बोलने से पहले दोस्त मेरे दिल में पहले तोलिये             अब चालीस के हो लिए.... होड़ थी आगे ही आगे बढ़ने की न उठाई ज़हमत कभी पढ़ने की ज़िन्दगी की किताब के उन पन्नों को खोलिए                 अब चालीस के हो लिए.... नहीं फिक्र है जीवन की कश्ती की हर वक्त बात मौज और मस्ती की उस दौर में ये इल्ज़ाम तुमने बहुत सर पे अपने ढो लिए             अब चालीस के हो लिए..... " मनोज नायाब "

साँसों का किरदार

मैं हवा के हर एक उस क़तरे को कर दूंगा आगाह जिन्हें मिलेगा निभाने का तेरी साँसों का किरदार की मिलकर आए धड़कनों से की लेते भी हैं की नहीं नाम हमारा लौटते वक्त बताएं मुझे कु तसव्वुर में उनके घुला हुआ है की नहीं रंग मेरा मैं तेरी हर लौटती सांस से पूछ लूंगा हाल ए दिल तमाम मेरी निगाह में बड़े फनकार है वो हवा की क़तरे जिन्हें मिला तेरी सांस का किरदार । अब सोचता हूँ की काश मैं भी ...... " मनोज नायाब "

ख़त

दिल में तेरी यादों का घनघोर तूफ़ान भी उठा था कल रात कलम भी उठाई थी तुझको ख़त लिखने की खातिर कल रात मगर इतने मशगूल हो गए तुझमें और तेरी यादों मैं कल रात की अगले ही पल सूरज को दस्तक देता पाया कल रात ख़त पर नज़र डाली तो देखा तेरे नाम से ज्यादा कुछ न लिख पाए कल रात सोचो इससे ज्यादा खूबसूरत ख़त क्या होगा एक साफ़ आसमान से कागज़ पे चाँद सा तेरा एक नाम और कुछ भी नहीं हैं ना ...
आधे रास्ते से लौटकर आया हूँ मौत से कुछ लम्हे उधार मांगकर लाया हूँ बस तेरी कुछ मुस्कुराहटें साथ ले जाना चाहता हूँ खुदा को भेंट कर दूंगा तो माफ़ कर देगा वो मेरे सारे गुनाह "मनोज नायाब "

किरदार तेरी सांसों का

हवा का कतरा कतरा खड़ा है क़तार में पाने को एक खास किरदार मगर किसी के हिस्से आया धूल उड़ाना किसी के हिस्से में पेशानी का पसीना सुखाना किसी को मिला सन्नाटों में खौफ बढ़ाना तो किसी को मिला किरदार महज़ समंदर की सतह को लहर बनाना मगर वही खुश किस्मत हवाएं तेरी सांसों का किरदार पाती है जो तेरे सीने की ज़द में आती है । " मनोज नायाब "

बिकाऊ मिडिया bikau media

शब्दों को बांधकर, सिक्कों की हथकड़ियों से, लाद दिया है कागज़ की पीठ पर, बिकाऊ पुरस्कार के कोड़ों से, रिस रही अब कलम की स्याही, अखबारों ने सजा रखी है, समाचारों की मंडियां, सुंघाकर शब्दों को क्लोरोफॉर्म बिठा दिया बिकाऊ मैगजीनों की जांघ पर 12 रु में लो इन शब्दों के चीर हरण का आनंद ए शब्द कौन बचाएगा तुम्हें दफ़ना आए हैं गालिबों को इतिहास की कब्र में जला आए हैं प्रेमचंदों को समय की चिता में । " मनोज नायाब "

उधार का लम्हा udhar ka lamha

उधार का लम्हा ज़हर हमने भी जुदाई का पिया है फिर भी हंसकर हर लम्हे की जिया है । ए सितारों माफ़ करना एक रात के लिए वादा ये चाँद किसी को देने का किया है । नस्तर हाथ में लिए बैठे हो क्यों तुम ज़ख्म हमने अभी अभी तो सिया है । ये दीवाना अंधेरों में घुट कर मरा होगा इसकी मज़ार पे नहीं जल रहा कोइ दिया है । जाने की बात न कर तू अभी "नायाब" ज़िन्दगी से हमने उधार ये लम्हा लिया है । " मनोज नायाब "

अजब दीवाना था ajab deewana tha

अजब दीवाना था रघों में दौड़ रहा है क्या मिलने की आस है खून ए जिग़र को जाने किसकी तलाश है । वो करे लाख सितम तो क्या डर है मुझे सहने का तुजुर्बा भी तो अपने पास है । वो खींचे है कमान पर छोड़ते नहीं तीर ए हुश्न को हसीनाओं में तड़पाने की यही तो अदा ख़ास है अजब दीवाना था मर गया तिश्नगी से शायद समंदर में बहती ये किसकी लाश है । लगता है दफ़्न है इस बगीचे में कोई नायाब उगी नहीं बरसों से यहाँ कोई घास है । " मनोज नायाब "

कुछ ख्वाब

गिरह में बाँध रखे थे कुछ ख्वाब बड़े दिनों से देखूं कैसे रातें कम पड़ रही थी सो अपने घर के तमाम उजाले बेचकर कुछ रातें खरीद लायी थी मगर ये क्या कुछ ऐसा ही मेरा नसीब है नींद के इंतज़ार में रातें यूँ ही खर्च हो गयी और ख्वाब गिरह से बंधे के बंधे ही रह गए मैँ बेबस लाचार तेरा ख्वाब भी न देख पाई । " मनोज नायाब "