कुछ ख्वाब

गिरह में बाँध रखे थे कुछ ख्वाब
बड़े दिनों से
देखूं कैसे
रातें कम पड़ रही थी
सो अपने घर के तमाम उजाले
बेचकर
कुछ रातें खरीद लायी थी
मगर ये क्या
कुछ ऐसा ही मेरा नसीब है
नींद के इंतज़ार में
रातें यूँ ही खर्च हो गयी
और ख्वाब गिरह से
बंधे के बंधे ही रह गए
मैँ बेबस लाचार
तेरा ख्वाब
भी न देख पाई ।

" मनोज नायाब "

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