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तुझे कागज़ तो दिखाना होगा

या तो यहां से जाना होगा या तुझे कागज़ तो दिखाना होगा । जो यहीं के हो तो यहीं रहो  गर लांघ कर सरहद आए हो  तो बिस्तर बांध के जाना होगा तुझे कागज़ तो दिखाना होगा । हां तुझको दिखलाना होगा कागज़ तुझको दिखलाना होगा जो हम वतन हो तो दिल में बिठाएंगे साथ बैठ कर तुम्हारे सेवईयां भी खाएंगे रात के अंधेरों में छुपकर आने वाला बता वापिस कब रवाना होगा तुझे कागज़ तो दिखाना होगा दिखाना होगा दिखाना होगा दिखाना होगा तुझको कागज़ तो दिखाना होगा म चंद कीड़ों को निकालने के लिए बीनने पड़ते हैं चावल सभी हमारे भात में कंकर बनने वालों  सरहद पार तेरा ठीकाना होगा । तुझे कागज़ तो दिखाना होगा । जो देश के रंग में रंग न सका तो रंगरेज़ कैसा धरा को मां कहने में इतना परहेज कैसा अब तो वंदे मातरम भी गाना होगा तुझे कागज़ तो दिखाना होगा । जाने कितने भीतर तक  अम्न को तुमने कुतरा है । भाईचारे की दरियादिली का नशा  अब जाकर हमें भी उतरा है । देश को टुकड़ों में बांटने वालों को अब तो सबक सिखलाना होगा तुझे कागज़ तो दिखाना होगा । जब गुलिस्तां को उजाड़ रहे थे सफेद लिबास वाले भेड़िये नायाब तब हम मौन नहीं थे । अपने बच्चों को हम...

चांद को पानी में...

मानो चांद को पानी में उबाला जा रहा है  जैसे समंदर को लोटे में डाला जा रहा है ये इश्क़ कितना मुश्किल काम है यारों सुई की नोक से हाथी निकाला जा रहा है ग़ज़ब है कि बच्चे तो अनाथ घूम रहे हैं  और यहां कुत्तों को पाला जा रहा है । ऐसे कैसे आएगी सुबह तुम ही कहो अंधेरों को भर्ती कर उजालों को निकाला जा रहा है । वो फिर से नई कसमें खाने लगे हैं और पुराने वादों को टाला जा रहा है ।

बर्तनों पर नाम

तब कटोरियों में  होली पर दही बड़े  दीवाली पर मीठे शक्करपारे बेटे के ससुराल से आई हुई तीज की मिठाइयां  उघापन का प्रसाद सर्दियों में दाल के बड़े  बेटे के पास होने पर रसगुल्ले मल मास में गुड़ के गुलगुले  कुलदेवी का प्रसाद नई बहू के हाथों बनी पहली पहली रसोई , और तो और मुंडन या श्राद्ध में बची हुई जलेबी को भी बांटकर खाया जाता था । इसीलिए पूवजों द्वारा  बर्तनों पर हमेशा नाम खुदवाया जाता था । अब तो रिश्ते भी  डिस्पोजल जैसे हो चले हैं  बस काम में लो और फैंक दो । "जो इस्तेमाल करेंगें और फिर  डस्टबिन में डाल आएंगें । डिस्पोजल वाले लोग अब कहाँ  बर्तनों पर नाम खुदवाएंगें "। अक्सर घरों में गलती से रह गया पड़ोसी का नाम खुदा चम्मच मिल जाता था । इसीलिए भी  पूवजों द्वारा  बर्तनों  पर  नाम हमेशा  खुदवाया  जाता था । क्या परंपरा थी बर्तनों को भी  कभी खाली नहीं लौटाया जाता था । इसीलिए पूवजों द्वारा हमेशा  बर्तनों पर नाम खुदवाया  जाता था । मनोज नायाब ✍️

रावण

कितने अजीब है हम  कितने किंककर्तव्य विमूढ़ है  कितने डरपोक है हम जब रावण जीवित होते हैं  तब लड़ने को  नहीं निकलते घरों से  उस काल में भी  इस काल में भी  शांति के लिए करते रहे  हवन प्रार्थनाएं आरतियां स्तुतियाँ मंत्रोच्चार मगर हौसलों के शस्त्र नहीं  उठाए जाते तुमसे बस आकाश की ओर  ताकते रहते हैं करते रहते हैं त्राहिमाम त्राहिमाम प्रतीक्षारत रहते हैं  कोई राम आएगा और  रावणों का विनाश करेगा  रावण के समाप्त हो जाने के बाद  अब क्या जलाते हो  उसको तुम प्रति वर्ष ये नाटक क्यों  तुम्हारे सामने कितने रावण है आज भी तो लाखों सीताऐं शिकार हो रही है  नए युग के रावणों की टुकड़े हो कर भरी जा रही  सूटकेसों में उनसे लड़ते क्यों नहीं  क्यों नहीं जलाते  मंदिर तोड़ने वालों को उत्सवों पर पत्थर बरसाने वालों को स्त्रियों पर कुदृष्टि डालने वालों को भेष बदलकर रहते इर्द गिर्द मायावी और नकली शांतिदूतों को फिर सदियों बाद इनके  पुतले फूंकते फिरोगे आज क्यों नहीं निकलते  घरों से गुलाम रहना मंजूर है  हज़ार हज़ार ...

बच्चों के विवाह से माता पिता की गायब होती भूमिका

बच्चों के विवाह में गायब होती जा रही माता पिता की भूमिका   मनोज चांडक "नायाब " ✍️    एक समय था जब बच्चों की शादी कब करनी है किसके साथ करनी है यह निर्णय माता पिता लेते थे उनके निर्णय में जीवन भर के अनुभव की डिग्री होती थी लोगों के पहचान की गहरी ट्रेनिंग होती थी सामाजिक सम्बन्ध उनके लिए सूचना प्राप्ति का सशक्त माध्यम होता था । उनके द्वारा स्थापित किये गए रिश्तों की इमारत टिकाऊ और मजबूत होती थी मगर समय तेजी से बदलता गया और इस पूरी व्यवस्था में परिवर्तन आता गया ।  अब माता पिता सिर्फ इन्फॉर्म और कन्विन्स किये जाते हैं निर्णय बच्चे स्वंय ले लेते हैं इस पूरी व्यवस्था परिवर्तन के कई पहलू है कुछ सकारात्मक कुछ नकारात्मक  सिर्फ माता पिता के नज़रिए से सोचेंगें तो यह दकियानूसी और पुरानी सोच का प्रतीक हो सकती है और यदि बच्चों के नज़रिए से ही सोचेंगें तो यह माता पिता के अनुभवों की अधिकारों की अवेहलना करना हो जाएगा । मगर पहले यह समझते हैं की यह परिवर्तन कब कब कैसे कैसे आया ज़रा इसको समझते हैं  ध्यान से व्यवस्था परिवर्तन की इस प्रक्रिया को चरणबद्ध तरीके से  समझिए यह ...

सांप

बेशक चंमडी गोरी है मगर दिल के वो बड़े ही काले है कितना जलना पड़ा सूरज को तब जाकर ये उजाले हैं और तुम मुझे क्या डर दिखाते हो ज़हर का दोस्त मैंने अपनी आस्तीन में तुम जैसे कई सांप पाले हैं मेरी धीमी चाल का मज़ाक बनाने वालों सुनो ज़रा उसूलों पे चला हूँ इसलिए भी पैरों में इतने छाले हैं 

साथ तुमने दिया है ( गीत)

मुझको मिल ही गया है ये सौदा खरा इस दुनियां के झूठे बाजार में जीत में तो सभीही देते मगर साथ तुमने दिया है मेरी हार में जो मैं कह न सका था तुझसे कभी तुझको कह दूंगा मैं बात ही बात में कितनी हसरत है ये ए मेरे हमसफर मांगों न लिफ्ट तुम कभी बरसात में बैठकर प्यार से फ्रंट की सीट पर करना इज़हार तुम फिर मेरी कार में जीत में तो सभीही देते मगर साथ तुमने दिया है मेरी हार में

पहलगांव

ये बैठक बैठक खेलेंगे निंदाओं के भाषण पेलेंगें नकली दौड़ भाग करेंगें फिर अफसर को फटकारेंगें कोई पाक को ध्वस्त करो इज़राइल सा बंदोबस्त करो ये काम ज़रा जोखिम के है मोदी तुमसे न हो पाएंगे  तुम लौटो अपने गुजरात हम योगी को दिल्ली लाएंगे  तेरे भरोसे मोदी हम अब कितनी चिता जलाएंगे  बैठ के ac कमरों में ये चाय समोसे खाएंगें भारत माता की बेटी के कितने सिंदूर मिटाएंगे बिन बदले आए तो 29 में फिर pm बदले जाएंगें  बोलो कितने और दिनों तक  शांति की बांसुरी बजाओगे ये शिशुपाल की सौवीं गाली है कब चक्र सुदर्शन चलाओगे । नहीं चाह रहे फिर हूरों की  तुम इन कुत्तों का वो हाल करो लहू चाहिए दुश्मन का झेलम का पानी लाल करो ऋषि कश्यप के काश्मीर की  केसर की क्यारी मुरझाई है बारूदी दुर्गंध फ़िज़ा में  बंद करो अब भाई भाई खुल कर अब तो बोलो तुम  नहीं जरूरत पर्दों की कश्मीर जल रहा फिर भी मौन क्या कौम है ये नामर्दों की  🔥🔥मनोज नायाब ✍️