ये भी तो हिंसा है
महकते चहकते और लता की कोरों पर लहकते उपवन की शोभा बढ़ाते हैं ये पुष्प हर दिशा खुशबू फैलाते च्यक्षुओं को सहलाते हैं ये पुष्प । भ्रमर का प्रेम यही है यही तितलियों का यौवन है मधु मक्षिका करती जिनका सदा रसपान । ये जीवित अंग है प्रकृति का इनका तुम सम्मान करो कुछ टूट कर झरे पुष्प किसी के पैरों में न रौंदे जाएं उन्हें पहुंचा दें योथिचित स्थान तब तक तो ठीक है , मगर स्पंदित आनंदित प्रस्फुटित पल्लवित पुष्पों को तोड़कर तुम लताओं से नोचकर तुम हथेलियों में दबोचकर तुम क्या ये नहीं है वध इनका मां समान डालियों की गोद में खेलते पिता समान तने के कांधे पर इठलाते इन नन्हे पुष्पों को अलग कर देते हो उनसे कभी कभी ये मूक जानवर की बलि जैसा लगता है मुझको कभी देवताओं के चरणों में कर देते अर्पित कभी लगा देते हो गुलदान में और अगले दिन फैंक देते किसी कूड़ेदान में कभी हार बनाकर किसी गले का कर देते नष्ट जीवन उनका कभी स्वागत द्वार पर बिंध कर नुकीले तारों से तो कभी मुंडेर पर लटका देते कभी चौखट पर झूला देते ये पुष्प क्या इसीलिए बनाए प्रकृति ने...