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Showing posts from October, 2024

एक रोज़ आफताब

एक रोज आफताब देखने आया था मेरा घर की कैसे उजला रहता है अंधेरों में ये दर अंधेरे हमेशा ही मुझसे हार जाते है  शायद ये मेरी माँ की दुआओं का था असर पतंग बनना चाहता हूं पहले की तरह आकाश छूना चाहता हूं पहले की तरह उड़ान भरना चाहता हूं पहले की तरह फिर से लगा दो मुझे बचपन के मेरे पर पीहर में किया करती थी मैं नखरे तब हज़ार सर पे उठा लेती थी जब आ जाता बुखार बाबुल का अंगना तुझको फिर से याद आ गया  इसीलिए भीगी है पलक, है आंख तेरी तर एक रोज आफताब देखने आया था मेरा घर की कैसे उजला रहता है अंधेरों में ये दर अंधेरे हमेशा ही मुझसे हार जाते है  शायद ये मेरी माँ की दुआओं का था असर पतंग बनना चाहता हूं पहले की तरह आकाश छूना चाहता हूं पहले की तरह उड़ान भरना चाहता हूं पहले की तरह फिर से लगा दो मुझे बचपन के मेरे पर पीहर में किया करती थी मैं नखरे तब हज़ार सर पे उठा लेती थी जब आ जाता बुखार बाबुल का अंगना तुझको फिर से याद आ गया  इसीलिए भीगी है पलक, है आंख तेरी तर

रावण

कितने अजीब है हम  कितने किंककर्तव्य विमूढ़ है  कितने डरपोक है हम जब रावण जीवित होते हैं  तब लड़ने को  नहीं निकलते घरों से  उस काल में भी  इस काल में भी  शांति के लिए करते रहे  हवन प्रार्थनाएं आरतियां स्तुतियाँ मंत्रोच्चार मगर हौसलों के शस्त्र नहीं  उठाए जाते तुमसे बस आकाश की ओर  ताकते रहते हैं करते रहते हैं त्राहिमाम त्राहिमाम प्रतीक्षारत रहते हैं  कोई राम आएगा और  रावणों का विनाश करेगा  रावण के समाप्त हो जाने के बाद  अब क्या जलाते हो  उसको तुम प्रति वर्ष ये नाटक क्यों  तुम्हारे सामने कितने रावण है आज भी तो लाखों सीताऐं शिकार हो रही है  नए युग के रावणों की टुकड़े हो कर भरी जा रही  सूटकेसों में उनसे लड़ते क्यों नहीं  क्यों नहीं जलाते फिर सदियों बाद इनके  पुतले फूंकते फिरोगे आज क्यों नहीं निकलते  घरों से तुम्हें कोई अधिकार नहीं  रावण जलाने का । मनोज नायाब ✍️

गरीब कवि

किसी गरीब कवि के मुख से  गरीबी पर नहीं सुनता कविता कोई  गरीबी पर कविता सुनने के लिए  बुलाया जाता है  किसी अमीर कवि को जो हवाई जहाज से उतरता हो उसकी अगवानी लाव लश्कर से हो पांच सितारा होटल से निकलकर  सीधे मंच पर आए और फिर सुनाए गरीबी पर कविता । फिर 2000 की टिकट खरीदकर  आए लोग बजाते हैं तालियां  बाहर निकलकर गाड़ियों के  काले शीशे चढ़ाकर  फुर्ररर से निकल जाते हैं  कहीं सिग्नल पर कोई  गरीब तंग न करें । मनोज नायाब ,✍️

बर्तनों पर नाम

इसीलिए शायद पूवजों द्वारा  बर्तन पर नाम खुदवाया जाता था । क्योंकि बर्तनों में मिठाई नहीं  अपनापन भर कर बंटवाया जाता था । तब कटोरियों में  होली पर दही बड़े  दीवाली पर मीठे शक्करपारे बेटे के ससुराल से आई हुई तीज की मिठाइयां  उघापन का प्रसाद सर्दियों में दाल के बड़े  बेटे के पास होने पर रसगुल्ले मल मास में गुड़ के गुलगुले  कुलदेवी का प्रसाद नई बहू के हाथों बनी पहली पहली रसोई , और तो और मुंडन या श्राद्ध में बची हुई जलेबी को भी बांटकर खाया जाता था । इसीलिए पूवजों द्वारा  बर्तनों पर हमेशा नाम खुदवाया जाता था । अब तो रिश्ते भी  डिस्पोजल जैसे हो चले हैं  बस काम में लो और फैंक दो । "जो इस्तेमाल करेंगें और फिर  डस्टबिन में डाल आएंगें । डिस्पोजल वाले लोग अब कहाँ  बर्तनों पर नाम खुदवाएंगें "। अक्सर घरों में गलती से रह गया पड़ोसी का नाम खुदा चम्मच मिल जाता था । इसीलिए भी  पूवजों द्वारा  बर्तनों  पर  नाम हमेशा  खुदवाया  जाता था । क्या परंपरा थी बर्तनों को भी  कभी खाली नहीं लौटाया जाता था । इसीलिए पूवजों द्वारा हमेशा  बर्तनों पर नाम खुदवाया  जाता था । मनोज नायाब ✍️

अंतिम सत्य

अंतिम सत्य- अभी बहुत समय  पड़ा है  यही  वहम सबसे  बड़ा है  और करूंगा अभी  संचय इसी बात पर क्यों अड़ा है तुमको  दिखता  नहीं भले ये काल मुंह बाए  खड़ा है  एक पल में बिखर जाएगा ये जीवन मिट्टी का घड़ा है मनोज नायाब ✍️