दिन गुलाबी और शामें
दिन गुलाबी और शामें
सुनहरी नहीं हो पाती
अगरचे ख्वाब में मेरे
वो परी नहीं आती
दिल जलों ने फेंके है
मेरे सीने पे पत्थर
ए सीप झील यूं ही
गहरी नहीं हो जाती...
तपना पड़ता है मुसलसल
अपने हिस्से की ठंडक छोड़कर
बादलों तुम क्या जानो
भोर यूं ही दोपहरी नहीं हो जाती....
कुछ तो करिश्मा है
उनकी निगाहों में
ये आंखें यूं ही
बहरी नहीं हो जाती....
बड़े तूफान जिस्म पर झेले है
चिलचिलाती धूप से खेले हैं
मुसाफिर क्या जाने पत्तियां यूं ही
हरी नहीं हो जाती....
सुन्दर | हिंदी दिवस पर शुभकामनाएं |
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सार्थक और भावप्रवण रचना हिंदी दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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