ग़ज़ल
तुमने जिस्म जलाया है उसने थामा बाहों में
फर्क इतना भर था तपती धूप औ छाओं में
हम तो डूबेंगे ये पहले से ही तय था क्योंकि
खुद छेद किये हैं हमने खुद ही अपनी नावों में
फूल मज़ारों में फल बाज़ारों में बिकने चले गए
अब पेड़ बेचारे रह गए अकेले अपने गाओं में
निकल पड़ता हूँ बरबस ही तेरे घर की तरफ
कोई पहना दो जंजीरे मुझ को मेरे पाओं में
लगता है गुजरी थी वो इधर से अभी अभी
खुशबू उनके जिस्म की है इन हवाओं में
रहने दो इलाज मेरा बचना नामुनकिन सा है
इश्क का बीमार हूँ भरोसा कम है दवाओं में ।
बहुत खूब
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