लौटा दे
जहां बचपन बीता है मेरा
वो ठाव मुझे लौटा दो ।
जहां बाल सखा रहते थे मेरे
वो गाँव मुझे लौटा दो ।
बारिश के पानी में चलती थी जो
चाहे सब कुछ ले लो मेरा तुम
पर वो कागज़ की मेरी नाव मुझे लौटा दो ।
जून दोपहरी बिन चप्पल के
बेफिक्र घुमा करते थे ।
नीम की छांव तले बैठकर
खूब बातें किया करते थे
बिना whatsapp के ही
दोस्त इकट्ठा हो जाते थे
डाल डाल पर चढ़कर
बेर निम्बोली खाते थे
फिर से जीना चाहता हूं वो बचपन
मेरी धूप मुझे लौटा दे
मेरी छाव मुझे लौटा दे
नाप लिया करते थे
धूप में सारी बस्ती
पतंग लूटने दौड़ लगाते
कैसी अजब थी मस्ती
बिन ब्रांडेड जूतों के भी
दिन भर क्रिकेट खेलते थे
एक हवाई चप्पल से
राह के सब कंकर झेलते थे
वो कभी न थकने वाले
वो कभी न रुकने वाले
वो सामर्थ्य मुझे लौटा दो
वो पाँव मुझे लौटा दो ।
वाह
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
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