गांव को गांव रहने दो शहर मत बनाओ ना
अमृत सी नदियों को जहर मत बनाओ ना
ऐसे ही रहने दो मेरे कच्चे खपरैल के ये घर
इन्हें तोड़ कर तुम यूं कहर मत बरपाओ ना
काटकर पर्वत का मस्तक उगाकर सूर्य नकली तुम
आस की भोर को मेरी अंधेरी दोपहर मत बनाओ ना
घने पेड़ों के नीचे सोकर गुजारी है कई रातें
काटकर जंगल मेरे तुम अपने घर मत बनाओ न
No comments:
Post a Comment
Pls read and share your views on
manojnaayaab@gmail.com