वादियों से उड़कर
कुछ कैक्टस के बीज
फैल गए हैं हिंदुस्तान
के अलग अलग शहरों में
पहले हमने उन्हें
नज़र अंदाज़ कर दिया
मगर अब वो बड़े हो रहे हैं
हमारी संस्कार की साड़ियां
उलझ रही है उनमें
हमारे व्यवस्था के पैरों
को छलनी कर रहे हैं वो
गुलाब के फूलों की उम्मीद में
हमने उन बीजों को
पनपने दिया
अपने हिस्से की खाद, पानी और धूप
उनको दी
इसी चाह में की हमारी बगिया
नए फूलों के नए रंगों से सज जाएगी
मगर वो तो कंटीले केक्टस निकले ।
केक्टस में न फूल उगते हैं
न खुशबू आती है ।
ऊपर ऊपर से काटो तो
फिर उग जाते हैं
इनको जड़ से ही उखाड़ना
मुनासिब होगा ।
मनोज " नायाब "
( कवि-लेखक )
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