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देर बहुत कर दी

अंधरों को मिटाने में अब देर बहुत कर दी सूरज तुमने आने में अब देर बहुत कर दी सांसे अभी अभी है छोड़ी है हमने  दिलबर तुमने आने में अब देर बहुत कर दी अभी अभी ओढ़ा है कफन ये हमने  शादी का जोड़ा लाने में अब देर बहुत कर दी पूरे जिश्म में ज़हर इश्क़ का फैल चुका है तुमने तो दवा लाने में अब देर बहुत कर दी हमने बसा ली अपनी दुनियां किसी और ही के दिल में रह गई बातें अफ़साने में अब देर बहुत कर दी

ग़ज़ल

आंखों में तूफा और ख्वाब है सफीने में फासला कम क्यों है इतना मरने और जीने में कातिल को रिहाई तो रिंदों को सज़ा क्यों रखना था फर्क तो लहू और शराब पीने में खत लहू से बहुत लिखे थे हमने भी तो मगर दिल की जगह पत्थर रखा था उसके सीने में उसके हिस्से में दौलत मेरे हिस्से में ग़ुरबत क्यों  जाने क्या फर्क था उसके और मेरे पसीने में  मैं आसमानों की बुलंदी को छू न सका  क्योंकि दरारें ही दरारें थी मेरे घर के ज़ीने में 

छंद राम गीत

नायाब -- कैकई ने जब राहों में कांटे बो दिए सभी उजाले अवध ने मानों सारे खो दिए सभी चरणों के छाले राम के जब फूटने लगे पैरों तले कंकर भी मानो रो दिए सभी फूल बनके बिछना था राहों में राम की धूल बन के बिछना था राहों में राम की नगर का हर वाशिंदा खुद से बोल रहा था बिन राम के अयोध्या नहीं है काम की दिल में एक सागर था आंखों में प्यास थी उड़ते हुए बादल के टुकड़े से आश थी भरे हुए सागर में तिश्नगी से मर गई बहती हुई नदी में मछली की लाश थी ।

छंद

कुछ लोग तो खंजर की सी दुकान होते हैं  कभी तो वो ज़हर मिले पकवान होते हैं । कितना भी सजा लो ये तो अपने नहीं होते कुछ दोस्त ज्यों किराए के मकान होते हैं । लिपटा हुआ मखमल में वो आरा ही रहेगा अपनों के झुंड में भी वो न्यारा ही रहेगा । भर भर के शहद इनमें तुम चाहे लाख उडेलो सागर का पानी खारा था खारा ही रहेगा ।