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Showing posts from May, 2021

धरती और पानी

ये धरती और पानी का है अद्भुत प्रेम ये प्यारे पनाह देती है सबको ये वो मीठे हो या हो खारे... पहुंचना जल का बादल तक नहीं है ये करिश्मा जो बेची ठंडक आँचल की खरीदी सूरज से ऊष्मा कभी उफ्फ तक नहीं करती उसे कहते हैं धरती माँ वहां पहुंचाया तुझको तो जहां तेरी जरूरत थी आदर अंतस में भरकर कर इसके गीत तू गा रे .... जो थककर चूर होता है तो इसकी की गोद में सोता फिर सागर को गहराई पे व्यर्थ अभिमान क्यों होता धरती की गोद में पलता इसकी के आँचल में रोता  नदी नाले समंदर तालाब और ये दरिया अगर धरती न होती तो कहाँ जाते ये सारे के सारे.... तेरे आमद को ये धरती भी सदा बैचैन रहती है

सांसो का सिलेंडर

ज़िंदगी के तवे पर है गुज़र बसर की रोटी, मगर अचानक  सांसों का सिलेंडर जवाब दे गया, अब क्या करें कहाँ जाएं कितनी थालियां घर के आंगन में लगी हुई है, सब इंतज़ार में बैठे हैं रोटी के, कुछ तो आभास  दिया करो  सांसों के सिलेंडर  के खत्म होने का, सच ये भी है कि मेरे कोटे की सांस बाकी थी मगर किसकी बेपरवाही ने असमय बुझा दिए ज़िंदगी का चूल्हे और हम बस समाचार बनकर रह गए  अब जो मेरी उम्मीद  पर थाली लिए बैठे थे उनका क्या होगा । मनोज नायाब--

पालघर

ज़िंदगी के तवे पर है गुज़र बसर की रोटी, मगर अचानक  सांसों का सिलेंडर जवाब दे गया, अब क्या करें कहाँ जाएं कितनी थालियां घर के आंगन में लगी हुई है, सब इंतज़ार में बैठे हैं रोटी के, कुछ तो आभास  दिया करो  सांसों के सिलेंडर  के खत्म होने का, सच ये भी है कि मेरे कोटे की सांस बाकी थी मगर किसकी बेपरवाही ने असमय बुझा दिए ज़िंदगी का चूल्हे और हम बस समाचार बनकर रह गए  अब जो मेरी उम्मीद  पर थाली लिए बैठे थे उनका क्या होगा । मनोज नायाब--

उत्पाद हो जनता

ज़िंदगी के तवे पर है गुज़र बसर की रोटी, मगर अचानक  सांसों का सिलेंडर जवाब दे गया, अब क्या करें कहाँ जाएं कितनी थालियां घर के आंगन में लगी हुई है, सब इंतज़ार में बैठे हैं रोटी के, कुछ तो आभास  दिया करो  सांसों के सिलेंडर  के खत्म होने का, सच ये भी है कि मेरे कोटे की सांस बाकी थी मगर किसकी बेपरवाही ने असमय बुझा दिए ज़िंदगी का चूल्हे और हम बस समाचार बनकर रह गए  अब जो मेरी उम्मीद  पर थाली लिए बैठे थे उनका क्या होगा । मनोज नायाब--

सांसो का सिलेंडर

ज़िंदगी के तवे पर है गुज़र बसर की रोटी, मगर अचानक  सांसों का सिलेंडर जवाब दे गया, अब क्या करें कहाँ जाएं कितनी थालियां घर के आंगन में लगी हुई है, सब इंतज़ार में बैठे हैं रोटी के, कुछ तो आभास  दिया करो  सांसों के सिलेंडर  के खत्म होने का, सच ये भी है कि मेरे कोटे की सांस बाकी थी मगर किसकी बेपरवाही ने असमय बुझा दिए ज़िंदगी का चूल्हे और हम बस समाचार बनकर रह गए  अब जो मेरी उम्मीद  पर थाली लिए बैठे थे उनका क्या होगा । मनोज नायाब--

उत्पाद हो जनता

चुनावी कीर्तन में तुम  प्रसाद हो जनता । खत्म हुआ मज़मा तो बेस्वाद हो जनता । कभी बिकते प्रति किलो  कभी बिकते प्रति मीटर तुमसे लेकर तुमको ही बेचे जाते प्रति लीटर कुछ और नहीं हो तुम  बाज़ारों का उत्पाद हो जनता । तुम जो सारे के सारे हो रैलियों के बस नारे हो रहनुमाओं की राहों में तुमको फूल बरसाना है जो लिखकर दिया गया है यशस्वी गीत तुम्हे गाना है  सत्ता रूपी पौधे की  तुम तो बस एक खाद हो जनता । सिंहासन पर बैठी बैठी  मार ठहाके वो हंसती । कहीं लुट रही है दुकानें कहीं जल रही है बस्ती ।      युद्ध से पहले चेताया था हम ही यहां के राजा रानी अब बर्बाद करेंगे उनको बात जिन्होंने नहीं मानी । नहीं लड़ सकती खुद तुम कभी तभी तो यूं बर्बाद हो जनता । मनोज नायाब