रुक बतलाता हूँ कौन हूँ बे
कभी सवाया कभी पौन हूँ बे
कभी उभरा कभी गौण हूँ बे
तुलसी कबीरा जॉन हूँ बे
सुन प्रताप का भाला हूँ
लष्मी बाई की ज्वाला हूँ
गद्दारों का काल हूँ बे
भारत माता की ढाल हूँ बे
नक्सलियों का अंत हूँ बे
वज्र से तीखा दंत हूँ बे
तुकाराम सा संत हूँ बे
सुन दिनकर की कविता हूँ
कुरुक्षेत्र की गीता हूँ बे ।
हर पुरुष में राम हूँ बे
हर नारी में सीता हूँ बे ।
शिशुपाल की सौवीं गाली
के इंतज़ार में मौन हूँ बे ।
रुक बतलाता हूँ कौन हूँ बे ।
कश्मीरी पंडित के निर्वासन की
हमने पीड़ा झेली थी ।
तब भी चुप रह गए थे जब
तुमने खून की होली खेली थी ।
जिस दिन हमने गीत शांति के
न गाए होते ।
ज्यादा नहीं सब मिलकर एक एक लट्ठ
उठाए होते ।
ये न समझो की हमको
पत्थर नहीं चलाने आते
बम नहीं बनाने आते
बसें नहीं जलानी आती
बंदूकें नहीं चलानी आती
संस्कारों ने रोक रखा
बस इसीलिए मैं मौन हूँ बे
रुक नायाब बतलाता है कौन हूँ बे ।
मनोज नायाब
टोपी में है जितने छेद ।
दिल में भी है उतने भेद।
उजले कपड़े मैला मन
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