Friday, June 15, 2018

दिल-ए-मर्तबान

दिल के मर्तबान में
कुछ पुराने एहसास रखे हुए थे
बरसों बाद खोला
तो पाया उन एहसासों में,
वक्त की फफूंद जमी पड़ी थी
फैली हुई थी
नफरतों की कसैली दुर्गंध
कोई और होता तो
उन्हें निकाल कर फैंक चुका होता
और दिल के मर्तबान में अब तक
भर चुका होता नए एहसास
मगर मैं ठहरा पागल
अब भी उन्हें दुरुस्त करने
की कोशिशों में लगा हूँ
बीच बीच में पुरानी कसमों की
फटेहाल चादर बिछा कर ।
उन्हें उम्मीदों की धूप में
डाल देता हूँ
कभी कभी मर्तबान
के ढक्कन को थोड़ा
अधखुला रख छोड़ता हूँ
की क्या पता कहीं से कोई
ताज़ी हवा का झोंका आए
और उन बेसुध पड़े एहसासात
को फिर से ताज़ा तरीन कर दें ।
आखिर उम्मीद पे ही मुहब्बत
कायम है नायाब ।







No comments:

Post a Comment

Pls read and share your views on
manojnaayaab@gmail.com