सुन ए ज़िंदगी तेरा यूं भी मुझ पे कोई कर्ज़ नहीं
ज़िल्लतों से जीयी ज़िंदगी मौत है कोई फ़र्ज़ नहीं

बेच डाले सपने जो रखे थे गिरवीे तुम्हारे पास
अब कायदे से तेरा मुझ पे बाकी कोई कर्ज़ नही

माना इश्क वहम है किसी का अपना हो जाने का
लत है बुरी आदत है मगर इश्क कोई मर्ज नही ।

ये अंजाम तो इसका जरूरीे सा कायदा है नायाब
जो खाए हो धोका तो इसमें कोई हर्ज नही ।







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