बोलते आखर

Saturday, April 8, 2023

गांव नहीं बेचते छंद

जितने भी ठौर हो हम 
अपना ठाँव नहीं बेचते
कोयल की कुक कागा की 
कांव कांव नहीं बेचते

दरख्तों की खुद्दारी तो देखो 
धूप कितनी भी अमीर हो
हम पेड़ अपनी छांव नहीं बेचते

हम किसान है साहब 
कोई व्यापारी नहीं
शहर को खरीदने के लिए 
हम अपना गांव नहीं बेचते


मंजिल मिल गई तो क्या हुआ
सफर खत्म होने से भी
हम अपना पांव नहीं बेचते

भले डूबने की फिक्र नहीं 
समंदर से हुई दोस्ती फिर भी
उस पार पहुंचकर के
हम अपनी नाव नहीं बेचते

छंद

ठौर जितने भी हो अपने ठाँव हमने नहीं बेचे
खत्म हो गया सफर फिर भी पांव हमने नहीं बेचे
इसी माटी में जीना है इसी माटी में है मरना
शहर को खरीदने की खातिर गांव हमने नहीं बेचे

कोयल की कूक कागा की कांव कांव नहीं बेची
भले दरिया से थी यारी पर अपनी नाव नहीं बेची
जिनका ज़मीर ज़िंदा है नहीं बिकता वो सिक्कों से
धूप कितनी थी दौलत मंद पेड़ ने छाँव नहीं बेची


सजाएं आज धरती को आई श्रृंगार की बारी
बिछा दो आज राहों में गुलो गुलफाम ये सारी
 पत्तों की चुनर ओढ़ी वो पुष्पों के पहन गहने 
छांव की देख तैयारी वो बैरन धूप भी हारी 



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