गांव नहीं बेचते छंद
जितने भी ठौर हो हम
अपना ठाँव नहीं बेचते
कोयल की कुक कागा की
कांव कांव नहीं बेचते
दरख्तों की खुद्दारी तो देखो
धूप कितनी भी अमीर हो
हम पेड़ अपनी छांव नहीं बेचते
हम किसान है साहब
कोई व्यापारी नहीं
शहर को खरीदने के लिए
हम अपना गांव नहीं बेचते
मंजिल मिल गई तो क्या हुआ
सफर खत्म होने से भी
हम अपना पांव नहीं बेचते
भले डूबने की फिक्र नहीं
समंदर से हुई दोस्ती फिर भी
उस पार पहुंचकर के
हम अपनी नाव नहीं बेचते
छंद
ठौर जितने भी हो अपने ठाँव हमने नहीं बेचे
खत्म हो गया सफर फिर भी पांव हमने नहीं बेचे
इसी माटी में जीना है इसी माटी में है मरना
शहर को खरीदने की खातिर गांव हमने नहीं बेचे
कोयल की कूक कागा की कांव कांव नहीं बेची
भले दरिया से थी यारी पर अपनी नाव नहीं बेची
जिनका ज़मीर ज़िंदा है नहीं बिकता वो सिक्कों से
धूप कितनी थी दौलत मंद पेड़ ने छाँव नहीं बेची
सजाएं आज धरती को आई श्रृंगार की बारी
बिछा दो आज राहों में गुलो गुलफाम ये सारी
पत्तों की चुनर ओढ़ी वो पुष्पों के पहन गहने
छांव की देख तैयारी वो बैरन धूप भी हारी
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