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Showing posts from April, 2023

देह

देह की सुगंध तो होती ही है सुगंध की भी देह होती है तुमने ही भेजा होगा सुगंध की देह पर अपने होंठ लगा कर  अभी अभी एक झोंका आया था चुम कर चला गया । मनोज नायाब---

बढ़ती है उम्र

बढ़ती है उम्र  दुआओं से दवाओं से मौन सी प्रार्थनाओं से निश्छल कामनाओं से ताज़ी साफ हवाओं से आशीष देती मांओं से पिता के पावन पांओं से कुल देवता के गांवों से पीपल की  छाओं से प्रियतमा की बाहों से  नेक नियति की राहों से

सत्य सनातन

मैं सत्य सनातन अमर धर्म हूँ मानवता का मृदुल मर्म हूँ मैं ही तिमिर मैं उजियारा मैं ही सूक्ष्म मैं विस्तारा मैं काल चक्र का तांडव हूँ मैं दुर्योधन मैं पांडव हूँ हमने खगोल विज्ञान दिया हमने हि शून्य का ज्ञान दिया तारो की भाषा सिखलाई सूरज की दूरी बतलाई सप्त दिवस की प्रथा चलाई काल चक्र की गति बताई हमने वेद पुराण दिए मानवता को प्राण दिए इस भौतिकता ने भोग दिया तब हमने जग को योग दिया नदियों पर्बत को नाम दिए हमने कृष्ण और राम दिए भगीरथी ने यहां जन्म लिया धरती पे गंगा अवतरित किया वास्तु कला यहां की अद्भुत है यहां दुनियां की चारो रुत है हमने दिए कुदरत के भेद हमने दिया है आयुर्वेद आर्यभट्ट सा गणितज्ञ दिया  और पाणिनि सा मर्मज्ञ दिया  था अज्ञानता का फंदा हमने दिया तब नालंदा  हमने बनाया तक्षशिला तब ज्ञान विज्ञान का पुष्प खिला चहुं ओर ही था जब तिमिर हमने दिया था वराहमिहिर यहां की मानस यहां की गीता यहां जन्मी राधा और सीता तुलसी कबीरा और रसखान  दोहों छंदों का अमृतपान यहां वेद पुराण और शास्त्र हुए यहीं सिकंदर परास्त हुए रम जाए जिसमें तन और मन यहां काशी मथुरा वृंदावन मस्तक पर शोभित है त्रिपुंड यहीं मिलेंग

समंदर दूर कितना है छंद

वो थककर चूर इतना है फिर भी शऊर कितना है तू बहते जा रवानी में जोश भरपूर जितना है  नदी पूछे न पहाड़ों से नदी पूछे न बहारों से नदी पूछे न किनारों से समंदर दूर कितना है । मुझको अपना लेना तुम की सुनले ए मेरे सागर मुझको अपना लेना तुम की सुनले ए मेरे सागर मैं मीरा हूँ दीवानी सी तू मेरा है नटवर नागर ज़हर धोखे से देता है ज़माना क्रूर कितना है । वो थककर चूर इतना है  निहारूँगा तुझे जी भर मगर पहले सजन मेरे ले लू अंक में तुझ को मगर पहले सजन मेरे बदन पे तेरे मल दूँ मैं चांद में नूर जितना है । वो थककर चूर.... वो देखो हौसला उसका वो देखो कुव्वतें उसकी पहाड़ों से टकरा जाना वो देखो जुररतें उसकी चुनौती देता पर्बत को कंकर में गुरुर कितना है ।

सुनो ए सूर्य

सुनो के सूरज  तुमको पंहुचा दिया हमने आसमान के पटल पर अब मेरे हिस्से की धूप मेरे घर के आंगन तक पूरी पूरी पहुंचनी चाहिए और सुनो पिछले सूर्य के जैसे बादलों को मत सौंप देना वो आधी आधी धूप रास्ते में ही चुरा लेते है और हमारे आंगन का अंधेरा मिट ही नहीं पाता  वर्ना हमें फिर 5 साल बाद सूर्य बदलना पड़ेगा । मनोज नायाब-:

गांव नहीं बेचते छंद

जितने भी ठौर हो हम  अपना ठाँव नहीं बेचते कोयल की कुक कागा की  कांव कांव नहीं बेचते दरख्तों की खुद्दारी तो देखो  धूप कितनी भी अमीर हो हम पेड़ अपनी छांव नहीं बेचते हम किसान है साहब  कोई व्यापारी नहीं शहर को खरीदने के लिए  हम अपना गांव नहीं बेचते मंजिल मिल गई तो क्या हुआ सफर खत्म होने से भी हम अपना पांव नहीं बेचते भले डूबने की फिक्र नहीं  समंदर से हुई दोस्ती फिर भी उस पार पहुंचकर के हम अपनी नाव नहीं बेचते छंद ठौर जितने भी हो अपने ठाँव हमने नहीं बेचे खत्म हो गया सफर फिर भी पांव हमने नहीं बेचे इसी माटी में जीना है इसी माटी में है मरना शहर को खरीदने की खातिर गांव हमने नहीं बेचे कोयल की कूक कागा की कांव कांव नहीं बेची भले दरिया से थी यारी पर अपनी नाव नहीं बेची जिनका ज़मीर ज़िंदा है नहीं बिकता वो सिक्कों से धूप कितनी थी दौलत मंद पेड़ ने छाँव नहीं बेची सजाएं आज धरती को आई श्रृंगार की बारी बिछा दो आज राहों में गुलो गुलफाम ये सारी  पत्तों की चुनर ओढ़ी वो पुष्पों के पहन गहने  छांव की देख तैयारी वो बैरन धूप भी हारी