दिन गुलाबी और शामें
सुनहरी नहीं हो पाती
अगरचे ख्वाब में मेरे
वो परी नहीं आती
दिल जलों ने फेंके है
मेरी आगोश में पत्थर
सीप क्या जाने झील यूं ही
गहरी नहीं हो जाती...
तपना पड़ता है मुसलसल
अपने हिस्से की ठंडक छोड़कर
बादलों तुम क्या जानो
भोर यूं ही
दोपहरी नहीं हो जाती....
बस उलझना था
उनकी निगाहों से इनको
बात सुनती ही नहीं
ये आंखें यूं ही
बहरी नहीं हो जाती....
बड़े तूफान जिस्म पर झेले है
चिलचिलाती धूप से खेले हैं
ए मुसाफिर तुम क्या जानो
पत्तियां यूं ही
हरी नहीं हो जाती....
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