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Showing posts from June, 2018

मठाधीश #mathadhish#

तुम पुराने मठाधीशों से कुछ अलग हो मगर ये न सोचना की अलग थलग हो इन इमारतों की बुलंदियों की खातिर तुमने भी घिसी होगी  एड़ियां । मगर नेक, आज़ाद खयालों के पैरों में क्यों मज़बूरियों की है ये बेड़िया । अब तुम्हे ही सुलझानी है हर हाल में उलझा कर छोड़ गए कुछ लोग जो लड़ियाँ । हमने तुम सा  नया सूरज आसमान में सजाया है । फिर एक भाईचारे का बिगुल भरोसे से बजाया है । मनोज नायाब

दिल-ए-मर्तबान

दिल के मर्तबान में कुछ पुराने एहसास रखे हुए थे बरसों बाद खोला तो पाया उन एहसासों में, वक्त की फफूंद जमी पड़ी थी फैली हुई थी नफरतों की कसैली दुर्गंध कोई और होता तो उन्हें निकाल कर फैंक चुका होता और दिल के मर्तबान में अब तक भर चुका होता नए एहसास मगर मैं ठहरा पागल अब भी उन्हें दुरुस्त करने की कोशिशों में लगा हूँ बीच बीच में पुरानी कसमों की फटेहाल चादर बिछा कर । उन्हें उम्मीदों की धूप में डाल देता हूँ कभी कभी मर्तबान के ढक्कन को थोड़ा अधखुला रख छोड़ता हूँ की क्या पता कहीं से कोई ताज़ी हवा का झोंका आए और उन बेसुध पड़े एहसासात को फिर से ताज़ा तरीन कर दें । आखिर उम्मीद पे ही मुहब्बत कायम है नायाब ।