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चांद को पानी में...

मानो चांद को पानी में उबाला जा रहा है  जैसे समंदर को लोटे में डाला जा रहा है ये इश्क़ कितना मुश्किल काम है यारों सुई की नोक से हाथी निकाला जा रहा है ग़ज़ब है कि बच्चे तो अनाथ घूम रहे हैं  और यहां कुत्तों को पाला जा रहा है । ऐसे कैसे आएगी सुबह तुम ही कहो अंधेरों को भर्ती कर उजालों को निकाला जा रहा है । वो फिर से नई कसमें खाने लगे हैं और पुराने वादों को टाला जा रहा है ।

बर्तनों पर नाम

तब कटोरियों में  होली पर दही बड़े  दीवाली पर मीठे शक्करपारे बेटे के ससुराल से आई हुई तीज की मिठाइयां  उघापन का प्रसाद सर्दियों में दाल के बड़े  बेटे के पास होने पर रसगुल्ले मल मास में गुड़ के गुलगुले  कुलदेवी का प्रसाद नई बहू के हाथों बनी पहली पहली रसोई , और तो और मुंडन या श्राद्ध में बची हुई जलेबी को भी बांटकर खाया जाता था । इसीलिए पूवजों द्वारा  बर्तनों पर हमेशा नाम खुदवाया जाता था । अब तो रिश्ते भी  डिस्पोजल जैसे हो चले हैं  बस काम में लो और फैंक दो । "जो इस्तेमाल करेंगें और फिर  डस्टबिन में डाल आएंगें । डिस्पोजल वाले लोग अब कहाँ  बर्तनों पर नाम खुदवाएंगें "। अक्सर घरों में गलती से रह गया पड़ोसी का नाम खुदा चम्मच मिल जाता था । इसीलिए भी  पूवजों द्वारा  बर्तनों  पर  नाम हमेशा  खुदवाया  जाता था । क्या परंपरा थी बर्तनों को भी  कभी खाली नहीं लौटाया जाता था । इसीलिए पूवजों द्वारा हमेशा  बर्तनों पर नाम खुदवाया  जाता था । मनोज नायाब ✍️

रावण

कितने अजीब है हम  कितने किंककर्तव्य विमूढ़ है  कितने डरपोक है हम जब रावण जीवित होते हैं  तब लड़ने को  नहीं निकलते घरों से  उस काल में भी  इस काल में भी  शांति के लिए करते रहे  हवन प्रार्थनाएं आरतियां स्तुतियाँ मंत्रोच्चार मगर हौसलों के शस्त्र नहीं  उठाए जाते तुमसे बस आकाश की ओर  ताकते रहते हैं करते रहते हैं त्राहिमाम त्राहिमाम प्रतीक्षारत रहते हैं  कोई राम आएगा और  रावणों का विनाश करेगा  रावण के समाप्त हो जाने के बाद  अब क्या जलाते हो  उसको तुम प्रति वर्ष ये नाटक क्यों  तुम्हारे सामने कितने रावण है आज भी तो लाखों सीताऐं शिकार हो रही है  नए युग के रावणों की टुकड़े हो कर भरी जा रही  सूटकेसों में उनसे लड़ते क्यों नहीं  क्यों नहीं जलाते  मंदिर तोड़ने वालों को उत्सवों पर पत्थर बरसाने वालों को स्त्रियों पर कुदृष्टि डालने वालों को भेष बदलकर रहते इर्द गिर्द मायावी और नकली शांतिदूतों को फिर सदियों बाद इनके  पुतले फूंकते फिरोगे आज क्यों नहीं निकलते  घरों से गुलाम रहना मंजूर है  हज़ार हज़ार ...