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ग़ज़ल #ghazal#

मुस्कुराहट यहां गिरवी और जुबा पर ताले हैं । ये शहर किसी संग दिल निज़ाम के हवाले हैं । ए मंज़िल तुझे तसल्ली नहीं तो लौट जाते हैं मगर सुबूत-ए-सफर ये है कि पैरों में छाले हैं । ज़ुल्म की दास्तां अब कैसे बताएं तुझे नायाब ज़रा देखो ज़मी पर पड़े हुए मुंह के निवाले हैं । राह-एे-इश्क को यूं हल्के में न लिया करो तुम मुहब्बत में भी चली जाती शतरंज की चालें हैं । मनोज 'नायाब'
अब किताबें उठाते वक्त सर टकराते नहीं है अब कहीं भी ऐसे मंज़र नज़र आते नहीं है । पहले सरीखा इश्क अब इस दौर में कहां है चोट खाकर भी लोग अब मुस्कुराते नही है । जो सिल जाया करते थे शर्मोहया से कभी इज़हार-ए-इश्क में अब होठ थरथराते नहीं है । उम्र भर सहेज कर रखे जाते थे इश्क के निशान मगर अब कहीं खतों में गुलाब रखे जाते नहीं है । बड़ी ईमानदारी थी इश्क के कारोबार में भी नायाब वादों का हिसाब रखने को कोई बही खाते नहीं है । मनोज "नायाब"